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पापुराण
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भाज्या रग से लाग लाज । अब फिरि को भूप के काज ।। सिमट लोग फन मनमुख भए । इद्रजीत मेघनाद दोऊ गा! ।। ५४७०।। उतने कुमर इतते नृप धने । घरग पुत्र इनों ने हने ।। मार मार दोऊ घां होई । भूमें सुभट हटं नहि कोय ।।१४.१॥ रावण पाप कटक में अभ्या। बीस भुजा दस सोरनी वस्या ।। स्थंह तणे रथ कंट्या भप । तब हणुवंत धाया दलरूप ।।१४०२।। वांचे वरुण के बहु पूत । वरण राय तब प्राय पहुंत ।। मनमैं सोचा रावण राय । जे बालक ने मारै ठाय ।।१४०३।। असे समझ पाया गामही । झमे लोग न हारि मानई।
वरण एक विद्याने संभारि । रावण परि छोडि तिरा बार ||१४०४।। भकरण द्वारा विजय के पश्चात् सूटपाट करना
रावण ऊपरि विद्या यही, हनुमान वह विधा गही ।। वानर वंसी ने ब्राधिया कुमार' प्रेरया वरण लोह की धाष्टि ।। १४०५।।
आण्या बांधि रावण के पास । कुभकरणस्यु बोल्या हास || लूटो नगरि करो तुम बंदि : जिहां तिहां जाई मन्त्राई दुद ॥१४०६।। सूटो जिको तिकोही लेह । कुंभकरण इम आग्या देह ।। लुटया नगर हाट बाजार 1 राजा का लुटपा मंडार ॥१४०७।। बहुत नारि नर लीन्हें बांधि । सीलवंती मरं विन अपराध ।। कोई जीभ पंड करि मरें। सील मंग तै पतिव्रता डरै ।।१४०८।। केई कुभकरण का रूप । गग प्रभागप सु देखे भूप' ।। पनि भाग जे याकी नारि । यह उनके ऐसो भरतार ॥१४०६।। केई पुत्र पत्र विललाइ । कई मात पिता कोई भाइ ।। गिणक कुटन बिछोहा भया । परिबस पड़ों बहुत दुख सहा ॥१४१०.। कई बांधि लाई संगि नारि । कई ऊंटां परि असबार ।। कई लई गाडना डारि । बहुत बांधि घेरी तिण धारि ।।१४११।। मंसी विधि रावण वै आंनि । कुंभकरम्प पाया वलिवान ।।
सगली दधि तब कर पुकार । रावण सुणि करि दया विचारि ।। १४१२।। बावरण द्वारा लूट की निन्दा करना
ए तुम क्यों बांधी अस्तरी । कुभकर्ण ते कीनी बरी ।। अर्थ दर्व दे छोडी बंदि । अपणें घर तुम करो प्रानंद ।१४१३।।