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________________ ४४६ घरम वृक्ष की पाई छ । ति ठा ठि मिटाऊं दाह ।। दिध्या लेहूं रिपी के पास । गुरु संगति पूजे मन भास ।। ५१५४।। रामचंद्र बोलै समझाइ तू सुखिया कोमल है का || सेज परंतर फूल भरी यूनिव पंचामृत लेता हो महार। इस गोरस बटु सौज संभार || पल पल होई तुम्हारी सार । कैसे लेहू संजम भार ।। ५१५६६। जैन घरम की क्रिया कठिन । कंसें पल सुमारा जतन ।। भूमि सोवणां निरस प्रहार | बाईस परीसह दुःख प्रपार ।। ५१५.७।। पद्मपुराण घरि घरि भोजन लेहु उदंड । राव रंक कब भेद न मंड || हम भी दिखा ले है जाइ । हमारे संग होम्यो रिराइ ।। ५१३८ ।। वृतांत बोलै भूपती । एही वार में होउं जती ॥1 फिर बोले अापण रघुनाथ । रुक जावी तब हमारे साथ ।।५१५६ ।। । सहदेवगति किसही सुरंग । संभाल कीजियो मितर चर मैं मैं माया मांहि भुलाव । तुम संवोध ज्यौ मित्र सुभाव ।।५१६० ।। तब दिक्षा ले में भी तिरू । बहुरि न भवसागर में प कृततिष को भाग्या दई । सब ममता मन से मिट गई ।। ५१६१ ।। वहा कृतांत वक्र तब सोरसोग, क्सन सुविक्रम निक्रांत ॥ बहुतों ने दिष्या घरी, ग्यान मंत विध्यात । ५१६२ ।। चौपई सीता के संगी श्रारणिका घनी, अधिक प्रताप विराजे वणी || सत प्रवत्त दिप सब देह रामचंद्र मन उपजा नेह ।। ५१६३ ।। रहे ध्यान घरि करें विचार । मो संग डोली सब संसार || 1 लोगों कारण मैं वर्षे निकार ति से हुबा दुःख अपार ।।५१६४ ।। प्रति कोमल सीता की देह । बनमें जोग लिया तजि गेह ॥ में भई उत्तम सिया सोखि पाट पटंवर सिज्या सोंडि ।।५१६५ । । पान फूल कोमल प्राहार। सखी सहेली करतीं सार || राग रंग पखावज बीन । कथा कहानी कहें प्रवीण ।।५१६६ ।।
SR No.090290
Book TitleMuni Sabhachand Evam Unka Padmapuran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand Kasliwal
PublisherMahavir Granth Academy Jaipur
Publication Year1984
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Mythology
File Size9 MB
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