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________________ १७० पपपुराण प्रकृति तरेसठ टी जान । उपज्या प्रभु कू केवल ज्ञान ।। पाए चतुरनिकाय के दव । पूजा का बहुत विध देव ॥१४६८।। जोजन तीन रच्या समोसा । भव्यजीव का संसय हा ॥ कंचन कोट रतन के तीन 1 सिंहासन भामंडल लीन ||१४६६|| चा- दन के वृक्ष प्रनि बने । वृक्ष अशोक शोक को हरण ।। वरणी षातिका प्रति गंभीर । तिस में दी निरमल गीर ।। १५००।। मानस्थंभ मान कहर । देखत दी मन निर्मल करै ।। अठारह गणघर बैठे पासि । च्यारों म्यान' के हैं वे भास ।।१५०१॥ बागी बेट सुण सब कोय । बारह सभा का समय खोय ।। गरधर ब्योरा कहें घस्सारण । भन्न जीव सांभलै वषांग ।।१५.०२।। दानपती हा नप वाहत्त । सहसराय लीयो चारित्र । असाख बदि चौदसि निर्वाण । संमेदगिरि गए मुक्ति भगवान ।।१५०३।। जोते जोति जाम करि मिली । पूजा इन्द्र करें मन रली ।। पाल प्रजा दक्ष प्रमु मुघ । महाबली अति धर्म स्वल्प १५०४॥ एलवृद्धन कू दीया राज । आपण किया मुक्ति का साज I1 श्रीवर्द्धन जयवंता भया । सार्क पुत्र कुनम वलि थया ॥१५०५।। महारथ पुल वासकेत बलबंड । बहु भूपन से लीया दंड ।। वासकैत के विमलावती नारि । रूप सील संयम की पार ॥१५०६।। जनक मप ताक उर भया । दान मांन सबको बहू दिया ।। दया दान सयम नित करै । पुण्या प्रताप तेंदुरजन डर ।।१५०७।। दूहा हरिवंती राजा हरिवंसी पुनिवंत कुल, भूपति भए अनेक ।। काटि करम सिबपुर गए, पांच नाम की टेक 1॥१५०८।। चौपई कोई पंचम गति को गए । कई स्वर्ग देवता भए ।। हरिबंसी बसाए बहु गाम । इनका कुल तीस की ठाम ॥१५०६।। इक्ष्वाकवंस प्रादीश्वर किया । जिनकी कथा सुणौं धरि हिया ।। उत्तम कुल सबही तें प्रांदि । तिनकी चाल कथा अनादि ।।१५१०।। आदिनाथ मुनिसुव्रत लों, नरपति भए अनंत ।। नाम कहीं लग वरण, कहत न मा प्रच ॥१५११॥
SR No.090290
Book TitleMuni Sabhachand Evam Unka Padmapuran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand Kasliwal
PublisherMahavir Granth Academy Jaipur
Publication Year1984
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Mythology
File Size9 MB
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