SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 179
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११४ श्रादि पुराण में इनका भेद । सुखी भूप हूं कहीं न भेद !! नाभिराय के रिषभकुमार तिवासी लख पूरब राज संभार ।।७५२ ।। ऋषभ वर्णन रही प्रांष पुरवल एक इन्द्राणि ॥ ए हैं प्रथम तीर्थंकर देव । इनतें चलई घरम का भेव ॥ ७५३॥ ए माया में रहे मुलाम । मन वैराग्य उपजे किह भाय ॥ एक अपरा थी परवीन । जाकी श्राव घडी वोय तीन ॥७५४ ।। पद्मपुराण राज सभा में नाची भली । देश नृत्य उपजी मन रली ।। निरत करत तहां पूरी लाव | खाइ पछाउ परी मुषि ठाव ॥७५५ ।। बोले भूप उठाबो याहि याकी बेग गहों तुम ह । मंत्री कहैं यह पातर मुई। तत्र छोडघा सब पृथ्वी का राज भर दिया अजोध्या राज । यार सहस राजा भए संग वन मौनि गही जिनराज । राग चिमक चिल भई ।। ७५६ ।। आपण चले घर के काज || बाहूबल पोयापुर साब ।।७५७ || दया भाव चित सहर तरंग 1" राजा भवर उठे प्रकुलाइ ।।७५ ८ ।। भूख हमासी सहियन जाय । जो श्रपणे घरि चलिये बाह्र || तो फिर हमें भरत दुख दे | अँसी मनमें वित्त घरे ॥७५६॥ वन फल खाई पो नीर । जोगी संन्यासी तप सहे सरीर ॥ एक हजार वरष गए बीत । श्री जिण उपज्या केबल चित्त ।।७६० ॥ केवल वाणी संस्य हरे । ताहि सुरत भव सायर तिरं || भरत बाहुबलि बंड । जिन भूजवल साधे तु षंड ।।७६१ ।। लक्ष्मी जुडी भरा मंडार । जिसका निरपत न भावपार ॥ गिर कैलास शिखर देहूरा किया। रतनविय संवराया नवा ।।७६२ ।। तो भी लक्ष्मी पार्ट नहीं । दाण देख इच्छा मही ॥ कोई न सेन दोन ने आइ । तब वामल कू थाप राय ॥७६३॥ आदिनाथ स्वामी पे गया । ब्राह्मण का ब्योरा सब का || रिषभ देव की वारणी भाई । वह उपाधि तुम थापी नई ||७६४ ।। जैन घरम के निंदक होंइ । पाप उपदेस कहेंगे लोइ ॥ भरत भनें इन करिहूं दूरि । सय को मार गिराऊं मूल ।।७६५||
SR No.090290
Book TitleMuni Sabhachand Evam Unka Padmapuran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand Kasliwal
PublisherMahavir Granth Academy Jaipur
Publication Year1984
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Mythology
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy