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पद्मपुराण
दई प्रदिक्षन कर रहोस । श्री जिण करी बहुत प्रस्तुति ॥ पूरमधन मेघवाहन सौ कहै । जो तुम चलो परम सुख सहै ।।७८॥ साम र तट जोजन सो मांन । त्रिकुटाचल सुमेर परमांन ।। पचास जोजन है उन्चंत । कंचनगढ नय गोयण हुंत ॥७६।। जोजन तीस वस वह नगर । सोवन घर चैत्यालय अगर ।।। मोती लाल हीरे दवहु वरण । पन्ने चुनी जड़े सुवरण ।।६०) फिये चितेरे रतन के घने । प्रतिमा सहित चैत्यालय बने ।। बन उपवन बाबडी कूप । सरोवर निरमल पाल अनूप ।।१।। हंस प्रादि बहु जलचर जीव । वैठक सौहें गहरी नींव ।। कमल फूल फूले वहु भांति । दीस भली वाग की पांति ।।२।। दक्षिण विस लेका जिहां नाम । सर्व वस्तु सों सोमं ठाम ।। चंत्याली परि घुज फहराय । अमर स्वर्ग सुख कोई पाय ।।।। सहस्रकूट बने जिण यांन । लंकागढ़ सुगं पुरी समान ॥ सकल वस्तु का करो वर्षान । बढे कथा नहीं होय निदान ॥४॥ मेघवाहन कु दीयाहार । या की पूजा करो सबार ॥ जो मनवांछित करस्यो नरेस । संसा तुरत प्रकास भेस ॥५॥ पहैरै मति गले मझार । कुल क्षय होम पहर जब हार ।। पा की पूजा कीजो भली । तो पूजे मन वांछित रली ना८६॥ अरु विद्या दीनी राक्षसी । ते निश्चल पित अतंर वसी। कमला अमला संप्रत तीन । दई विद्याधर गुरणह प्रवीन ।।१७॥ श्री जिराबर की आज्ञा पाय । पति विमान लंका में जाय ।। बाजा बाज पुरै निसान । पूरणघन मेयवाहन भान ।।८।। सेना वहुत लई उन संग । हाथी रथ पालकी तुरंग ।। बैठ विमान चले प्राकास । देखे पुरपट्टण बहु बाम ।।८६॥ देस्मा सायर लहर तुरंत । मच्छ कच्छ उत्तर बहु रंग ।। त्रिकुटाचल तिहां फंधन कोट । ताहि कान्ति रवि हुमा मोट ॥६०) देखी लंका केचन मई । जिनवर भवन सोभा भति भई ॥ प्रष्ट द्रव्य सो पूजा रची । कर भारती दंपति सची ।।१।। पूजा करि गढ़ ऊपर चढ़े । देखत सुख महा मत्ति बढे ।। साल कलस दीया लंका राज । हुवा सबै मन बांछित काज ॥६२।।