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पद्मपुराण
मो कारण मंसी गति फिर। पिछताव राणी हिए भरै ।। भ्रमत फिर कारज सरै नांहि । मजिम प्रिय दिष्ट परचा काहि
नमस्कार करि पूर्छ घरम । सुणे भेद लागे चिन मरम || दिष्या लई संन्यासी पारा । पंचागि साधे बनवास ॥५३२०।। देही छांडि लही गति देव । इह राजा सुख विलस एव ।। झरोखं बैठा राजा बाह । कोटवाल भाषा सिंह ठाइ ।।५३२१|| एक मरद पकरघा परनारि । हाथ बांध प्राण्या तिह वार ।। राजा सुणी किया इह न्याय । इह को हरणों चोर की ठाव ।।५३२२।। फिर अंसा न करे कोई काम । खोव धरम लजावे गांव ।। तब राणी चंद्राभा का । राजा जी तुम मेद न लगा ।।५३२३।। इन कहा अब विगार । जिनौं को मारि करो हो छार ।। इनको बहुत दीजिये दान । निरम करो ज्यु मनमांन ।।५३२४।। इनों की पूजा करणां न्याइ । कहा चूक भई इनतें राय ॥ राजा कहे सुण राणी बात 1 तेरी मति भिष्ट भई इह भांति ।।५३२५।। अन्याई की तू पूजा कहै । दान दिलाव भेद म लहै ।। अन्यायी है यह महा पापिष्ट । इनको दीजे महान कष्ट ॥५३२६।। जितना हुये पुन्य यिसतार | भूलि न कर कोई बिगार ५ चन्द्राभा समझाये वैन । अपना वचन परिषो करि नैन ।।५३२७।। कहो तै मो करि प्रांनी व्याह । मुझ बिन व्याकुल है मेरो माह ।। जो राजा खोटा हुवे आप। तिसकी प्रजा कर अति पाप ॥५३२८।। त्रिया बचन सुणि भई संभालि । सत्य वचन समझे भूपाल ।। हाइ हाइ कर मी पाप । मैने कियो प्रथी को पाप ।।५३२६।। मो सरिखा करम ए करें । पृथिवी परि को अपजस घरै ।। उज्जल कुल लागो कालौंस । अब हूं घोऊं कइसी रोस ॥५.३३ ॥ मो कू भई पाप की बुधि । भूली राजनीति की सुधि || कटिन पाप कैसे होवै दूरि | ताहि न होने ऊषध सूल ।।५३२१॥ मन वैराग धरौ प्रति सोच । राज भोग सी छोडी राषि । सहन्न अव वन उत्तम महीं । सिद्ध पदम मुनि पाए सही ।।५३३२।।