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पद्म पुराण
कंचन कलस षीर जल भरे । दोऊ पोर के भीतर घरे ।। देष्यो सरोवर निरमल' नीर । छाया सघन विहंगम तीर ॥६६॥ अरु सूर्य देख्यो उद्योत । तास तिमर निर्मला होस । देष्यो पूरणमासी चन्द । मीसल वरतें मन मानन्द १७० फूलमाल देषी विकसात । मन आश्चर्य करै बहु भांति ।। सिंघासण मोती मरिण जड्यो । रत्नज देषत मन भयो । ७१।। देया मीन जुगल सर तिरै । ता चपलाई कौन सर करे ।। देव विमान देष गुनवंत । जाप्त रल्या भव सागर प्रत ।।७।। देवी अगनि धूम निरघूम । जानौं बनी रत्न की मूम ।। देष धवल धोरी धीरन धीर । पृथ्वी संग धरै बलबीर ।।७३।। देष्यो यारिध ग्रीषम कास । अति गजित किल्लोल विसाल ।। देष्यो नाग मुवन गुन सही । रात पाछली किंचित रही ।।७४।। स्वेत गयंद जु वन में गयो। वक्रत जागि प्रचंभा भयो ।। ए षोडस सुपने मनमांहि रहै । प्रिय समीप व्यौरे सों कहै ।१७।। सिद्धार्थ नृप सुनि त्रिय वैन । हरषित अंतर विगसत नन ।।
मन बन क्रम सुपने कुसुनें । निहचे प्रष्ट कर्म को हने ॥७६।। स्वपनो का फल
होय पुत्र फल मन प्रानंद । जानहु पूरनवासी चंद ।। सुर नर इंद करेंगे सेव । तीन लोक के दानव देव ।।७।। भव सागर का बोडे जाल । चर्म सरीर धर्म प्रतिपाल । विद्याधर नृपति पसुपती । इनमें बहोत चढावे रती । ७८।। जांनह पंचग्यान को धनी । सब परिवार चढाथ मनी ।। मुन प्रिय वचन भया प्रानन्द । प्रभु के चयन माठि सो बन्द ।।७।। सुदि अषाढ छठि उत्तम घडी । प्रभु ने बाद ग्रभ यिस करी । प्रासन कंधा सुर सुरपती। चिमक्या चित्त विचारी मती ॥५०॥ जिण चोईसमैं को अवतार । सिद्धारथ घर वीर कुमार ।। उतरि सिंहासन करि इंडोत । परंपराय ज्यों पिछली होत ॥८॥ मातंग जक्ष बुलाये टेर । आउ कुडलपुर इतनी देर ।।
ओर दैवी कुमारी चपनां । पाइ पहुची देवांगना ।।२।। माता को सेवा
मादेश हुवा कुवेर भंडार 1 रतन वृष्टि करि बार वार || दीये चितेरा देवकुमार । भले मुघर जु सूत्राधार |८३1. रचनां रथो मनोहर मही । चलती र सीप पौं कहीं ।।। कहुँ कहु देव चितेरा करै । अनहद भांति सुरग की वरं ।।४।।