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मुनि सभावंच एज उनका पयपुराण
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रे पापी रावण बुषि हीण 1 इह तो बहन भामडल की चीण । तेरा कादंगा दस सीस । तोड़ेगा तेरी भुजा सब बीस ।।२७७४।। राधा ने तब मारी बाण । रतनजदी तब पड़या ममुद्र में प्राण ।।
पंच नाम का सुमरण किया । समुद्र तिर बाहर प्राइया ।।२७७५।। कपि द्वारा देखना
कपि पर्वत परि उभो भयो । राथण लंका में तब गयो ।। विराधित नैं हूँ की सब दिसा । सीया न लाधी मनमें संसा ।।२७७६।। सब फिर पाये नीची दृष्टि । राम लखन में व्यापियो प्रति कपट ।। बिराधित न बोले रामचन्द्र । पूरव भव के स्त्रोटे दृद ।।२७७७३। असुभ उदय हम पाये दुःख । तुम मो काहि न बांस सुख ।। अवर फिरे तुम च्यारू देस । मेरा तुम मान्यां उपदेस ।।२७७८।। सकल हमारे कर्म की चाल । तुम चिंता मत करो भूपाल ।। विराधित बोल विनती करें । प्रभु अपणे संसय परिहरे ॥२७७६।। दीप अढाई दुई जाई । तुमको सीतां देहां प्राइ ।।।
इक चिता इक मन में घशी । तुम खरदुषण ग्रीवा हपी ।। २७८०॥ प्रसंका गढ में पहुंचना
रावण कुंभकर्ण बलिर्बत । भभीषण इन्द्रजीत सामंत ।। मेघनाद में बस अपार । किषंदपुर सुग्रीव अंगद गुण सार ॥२७८१।। किषंदपुर नल नील हणुमान । ए तुमसौं करि हे घमसांन । घलहु प्रलंका गढ़ लेहु । संव कुमर निकाल के देहु ।।२७८२।। पवन भामंडल विद्याधर राव । वे सब प्रागे हैंगे प्राव ।। दोय रय सभराउ भले । लक्ष्मण राम प्रलंका चले ॥२७८३ ।। आइ प्रलंका गढ़ ले लिया। चंद्रनखा सुत काढिक दिया । धे पहुंचे रावण के पास । राम कहे भलो वनवास ।।२७८४।। सीता विन सव देस उजाड । रामचंद्र चितवं उपगार ।। श्री भगवंत का तिहां देहरा । पूजा करी भाव सुबग ॥२७८५॥ पष्ट द्रव्य सू पूर्ण पाय । दुख संताप गए विलाइ ।।। हरण विध रह प्रलंका मांहि । सीता कारण चित कराहिं ।।२७८६॥
असुभ कर्म परभाव ते, वाधी चिता बेस ।। जो कछु लिस्यो लखाट में, ताहि ग कुरण पेत ।।२७८७।।