SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 163
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८ तब लग नहीं टूटे दस सीस । बो व्याकुल हूँ कीस || fies पापी करं पुकार । ह्रां तें कोई न सकै निकार ||५४१ ।। मैं बहुत न निकसे कहूं । अव हूं किल पर मारग गहुं || रोवें राष्या करें पुकार | विधवा भई हम मांग मंभार ।। ५४२ ॥ मुणिवर के मन भाई दया। चरण उठाइ भूमि ते लया || रावण द्वारा बाली की वंदना तब रावण छुटा सिंह घरी मान भंग प्रस्तुति करी ||१४३।। गयो श्राप तिहां बैठा जती । ताकै लोभ न वपु एको रती ॥ तप प्रतापसौं दिपं देह | चिदानंद सेती प्रति नेह ||५४४ || जैसे लं पाणी की कार जैसा मोक्ष मारग अहंकार || रावरण तीन प्रदक्षिणां दर्द । नमस्कार करि समता भई १५४५ ॥ तुम महंत धरम पर मीत । तातं घरी धरम की रीत || मैं पापी मूरख यांन पडघो मोह फंदा में प्रान ॥ ५४६ ॥ पाप करम में किया प्रथाय । तें दुख किम करि मेटघा जाय ॥ I दीक्षा लेने के भाव पद्मपुरा अब तु मो प्रभु दिक्षा देह । वांह पकड़ अपनी ढिग लेह ॥ १४७ ॥ चंद्रहास तब दीनों डारि । गदा गोमती सब हथियार । मुकुट सीस तें हारा तोडि । विद्याभरण दोने सब छोटि ११५४८ ।। कपड़े तनके डारे फार मन वैराग्य धरथा लिह बार ॥ बार बार बोले आधीन ॥ १४६ ॥ करी वंदना चौबीसी तीन तुम भगवंत हो तारण तरण मैं दीक्षा ले सेकं चरण हूं आयो प्रभु तेरी सरण ॥ मेरे होउ पापों का हरण ।।५५०१ प्रसरण कंप्पा घरणी देय । सठ सिलाका होइ न छेह ॥ इनका सा अर्थ नियोग । भुगतें तीन दंड का भोग ।।५५१०१ भैंसी चितप्राया कैलास पूजे श्री जिसा मन उल्लास || रावण सुधरनेन्द्र हम कहे । तेरे दया भाव चित रहे ।। ५५२ ।। तैं तो भगति करी मन लाई । मैं सुखि घरभ भाया इस ढाई । जो तेरे मन इच्छा हो । मुझ वै मांगि लेह तुम सोइ ।। ५५३ ।।
SR No.090290
Book TitleMuni Sabhachand Evam Unka Padmapuran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand Kasliwal
PublisherMahavir Granth Academy Jaipur
Publication Year1984
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Mythology
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy