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पपुराण
मलिन रूप देखी वहां पडी। जाणे प्राण जर्ज इस घडी ।। दशरथ आइ पलंग परि वैटि । राणी उतर कर बैठी हेट ॥१६६१।। बांह पकड़ कर नई उमाय । पोलंग पर मिज पाम बिठाय ।। किरा कारण तू करें प्राहकार । किरण मनुष्य तो कूदई गार ||१६६।। ताकी जीभ कदाऊं तुरन्त । जैसे ही पाऊं सुध तंत 1। सुप्रभा कहै सुणो नरेस । मोकू कहा देखी होगा भेस ।।१९६३ ।। सकल कला गुण माहिं प्रवीण । कयाप वस्तू मैं जाणों होगा ।। गंधोदक सब क' तुम दिया । मेरे ताई क्युन वांटिया ।। १६६४।। प्रत्र हुमरूमोडि संन्यास । अपग जीत्रण की तज पास ।। गय का ते सुण्या पुराण । अंसी चित्त में मूल न प्राण ॥१९६५।। कोष कार जो प्रात्मा है । लख का दुरुपहै ।। बुमति मरण भवभव होइ दुख । चिहु गति माहि न पाद सुग्न ||१६५६।। गंधोदिक लीयां थी कंधुकी । सुप्रभा रांगी क्रोध मा की ।। सुप्रभा बोल सुणु नाथ । मुंह मोडमा भीर ईनह हाथ ।।१६६७।। मिल्यो तिहां सगलो रावास । बैठी घेरि राणी चिहुं पासि ।।
इह गंधोदिक श्री जिनवर तणों । इस पर क्रोध न कीजे घणों ॥१६६८।। कंचुको को नत्म का प्रावेश
अंजली भर निधडकी सब प्रिया । ततभिरा क्रोष पयाण प्रिया ।।
राजा कंचुको सौं तब कहै । वेग नांचि राणी सुख लहैं ।। १६६६।। कंचुकी का उत्तर
बोल बचुकी सुपी नरेश । वृध्य भए पंडुरा केस !! टूटे दांत देहीं जा जुर्ग । सघ सरीर में लीलरी पड़ी ॥१६७०।। कांप भरण थर हरै सरीर । बहे नाक नैणा थी नीर । लाठी टेक सुर द्वीले भए । तरुणा पाका पौरुष गये ।। १६७१।। जसी फूल है अति सांझ । जिम जोबन विनस पल मांझ ।। हूं किरा पर नाचू भूपनी । यही में बल रह्या न रती ॥१६७२॥ तुमार ही इहै प्रसाद । बहुतरा सुख मुगते स्वाद ।। रूपरंग चतुराई घणी । मुझ सो कोई न गुणी ॥१९७३॥
वृद्ध भये कला सब घट गई । अष्यर पद की सुध भई ।। शरथ पर प्रभाव
दसरथ के मन सांची लगी। वैराग भाव की चेष्टा जगी ।।१९७४१॥