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सुनि सभाचंद एवं उनका पद्मपुरा
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इसने करि सेनापति | सबतें याहि चढाऊं रती ॥ रावण अस्तुति कोनी घनी और सराह करे सब दुनी ॥ ६३४ ॥ सहस्ररश्मि की बिरदावली । एक एक की कीरत भली ॥ राज मन तं भया भन मंग । बहुर न करों राज सौ संग ||६३५||
सबै विरणासी राज विभूति । हय गय लछमी अस्त्री पूत || जे में केल करी जलबीच । तो तो मोकू ऊपजी थी मींच ।। ६३६ ।।
सहस्ररश्मि द्वारा मुनि दीक्षा
अब हूं दिया जाय । करों तपस्या मन वच काय ॥ रॉबरण जंप सुनहु नरिए ने पयराग नया रूबल
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धरणेन्द्र मोकू समझाया फेर कियो प्रथ्वीपति रय फेर ॥ तुम बालक जोवन भरि देह । क्यों करि तपस्यों घरि हो नेह ||६३८॥
जैन घरम दुष्कर है घना गुमि सेज करिश्यों पोळणां || बाईस परिस्या कैसे है। क्षुधा त्रिपा दुख तन को हैं ।। ६३६ ।।
अब तुम राज को प्रापणां छह रितु दुख परावोगे धरणा ।। श्री जिनवाणी निश्चय ध्यान । दान च्यारि दो सक्ति समान ॥ ६४० ।।
सब नारद में तू सरदार । निरभय पालो राज द्वार ।। श्रीप्रभा मंदोदरि की बहन 1 करो व्याह जे हुने दुख दहन || ६४१ ।
ब बहुत प्रकार समझाय । वाका मन न चलें किरण ठाइ ॥ सतवाहन पं दिक्षा लई । जनम जरा की संकर गई ।।६४२ ॥ १
नगर प्रजीच्या पूरव देस । सहवकिरण तहां अणे नरेस || सुखी सहस्ररश्मि की बात । पुत्र राज महष तीई भति ।।९४३ ।।
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आपण लई दिक्षा उस जाइ । श्री भूप प्राया इस ठयि ॥ अभिनंदन सुत ने दे राज | आपण कियो दिगंबर साज || ६४४ ||
रावण सु उत्तम क्षम करी । भावत केवल विध्य को परी ।। प्रतिम ध्यान लगाया जोग | पार्श्वये पंचम गति भोग ||६४५५
इति षी पद्मपुराणे सहखरश्मि म विष्यनकं २५६ ॥