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________________ ११८ | मास एक बील्या तिए देस | फिर माया निज नगर नरेस || ब्राह्मण सुरिंग राज्या प्रति मिल्या 1 देखी बनमाल' चित चल्या ||६०५ ॥ जो ऐसी में भोगलं त्रिया । तो सुख मानो यह चित दया || या के अधिक विद्याप्या मैन | तिस बासर देही नहीं बंन ॥ ८०६ ।। कामल ब्रह्मा हर तप टरचा । तप सब खोइ चतुर सुख करघा || संकर नांच्या गदा कर ल्याइ । तप खोयो रसनारि लुभाय ||८०७|| कामबंद है प्रति बलवंत । धन्य जिको जिन राख्यो दंड ॥ ब्राह्मण छीजै दिन दिन देह । राजा के मन भया संदेह ||5०८11 इह क्यों दुरबल हुबै घर या के भेद न जाये विप्रतं नृप पूछे बात । तुम || प्रपणां भासो विरतांत ॥ ८०६ ॥ पद्मपुराण किस कारण तुझ बीण सरीर तो कु है काह की पीर ॥ सांची बात कहो समझाय । तो मेरो संसय मिट जाय ।।१०।। ब्राह्मण कम बोले वेरा । बाकेँ दाह लगाई में || लाज सबद बोले किस भांति । कांम प्रगन कैसे हिसिरात ।। ८११५ छोडी लाज सुरणाया भेद । इह वरणमाला कारण खेद || राजा कहे सुगों द्विज मिस । तुम कछु सनमें नाराजं चित्त ।।१२।। जो वह इच्छे तो तुम लेहु मैं तोकु दोनी निसंदेह || खठपा विप्र देवी घट गया। राखी कु उपदेश वह भया ||१३|| तुम अभी देयी की जा । मढ बाहर सखीय बसाउ || राणी मह के भीतर गई। देखि सेज विठाई नई ३८१४॥ विषे न खाय मरे प्रभ्योन। जे नारी परपुरुष को रमें ब्रह्मण वचन पयं ताहि । रामो देखि रही मुरझाइ ।। ब्राह्मण सु बोलं वनमाल। परनारी जैसा है काल ||१५|| नरक जाहि वे जीव निदांन ॥ खो नारी नीवी गति मै खोटी गति में भर में सोइ ॥ सूकरी कुकरी गदही होइ । तिल सुख बहु बहु दुख है । छेदन भेदन के दुख सह ॥८१॥ तास फुतनी ल्याने भग। ए फल लई सील करि भंग 11 द्विज के मन को मियों कुफैल दमा भावं प्रगटयो शुभ मैं ८१८॥
SR No.090290
Book TitleMuni Sabhachand Evam Unka Padmapuran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand Kasliwal
PublisherMahavir Granth Academy Jaipur
Publication Year1984
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Mythology
File Size9 MB
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