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पदमपुराण
हिंसा चौरी अनरत जांनि । ब्रह्मचर्य परिग्रह परमोन ।। गुणत तीन धरै मनु भाव । दिगनत देसवरत मन पाउ ।।३५७|| अदया का व्योहार न करें । शिक्षाप्रत च्या विष परं ।। सामायक पोसो बल और । पूजा दान सुपात्र सुठोर ॥३५८॥ इण विध परम सुश्रावक हो । जती धरै तेरह विध सोइ ।। पंच महावत साध जोग । सुमति पंच वर्जित सुभ भोग ।।३५६।। तीन गुप्ति पाल दिन राति । मन वच काया संध्या प्रात ॥ सहन पठारा अंग समेत । सीलखत पाल बहु हेत ।।३६०|| आपण थकी बड़ी जो होइ । माता सम जाणइ सब कोइ ।। जे अपनी सरभर की तिरी । जानई बहनि धरम की परी ॥३६१५ । प्रापण सेती छोटी अांन । पुत्री सम जाणो करि ज्ञान ।। बहुत भांति के सुमि उपदेस । तिराउ धरथा मुनिवर का भेस ।।३६२।। कोई सुनि श्रावक व्रत लेइ । वचन पयोग भाति बहु देइ ।। कियो बिहार दुदुर्भः ।। पानी की गुन गनी || नृत्य कर गावै गुन गान | सुरवाजे सुर दुदु प्रमान ।। लोकपाल मांग पग धरै । सौ सौ कोस लगि सोभा कर ॥३६३॥ प्रागै धर्म चक्र सुभ मई । चले प्रमु जय जय धुनि भई ।। औरणा येण मृदंग झालरी । संप नफीरी वाजे परी ।।३६४॥ घनहर घमउ मंदल धुनि घोर । हासि कुलाहस करई सुरसोर ।। सावधान दसहुं दिश पूर । करई दुष्ट पापी ने दूरि ॥३६५।। मायें लोग पूछ विध धर्म । लास असूभ पाष के कर्म । दरसन पंच पंगु पग 'डोल । बहिर सुनें मूक मुष' बोल ।। ३६६।। इण अतिसय मौ करई विहार | पाय जीव बहुस प्राधार । धरम प्रगट प्रतिबोधे देस । फिर आये कलास जिनेस 1५३६७।। समोसरण में राजत धनी । च्यार ग्यांन चौरासी गुनी ।।
मति श्रुलि अबधि ग्यांन के धनी । मनपर्यय केवल गुन गुनी ॥३६८।। सम्राट भरत द्वारा विग्विजय
भरत चक्र पांया सुभ ठोर । देव सहस्त्र सवै कर जोर ।। नवविध मष्ट सिद्धि संयुक्त चौदह रतन सुसछि बहुत ॥३६६।। ह्य गय वाहन अधिक असेस । सहस्र छयानवे नवे नरेस ।।। सहस्र छयानवं नारी भनी । ताकी उपमा जाम न गिनी ।।३७०।।