Book Title: Muni Sabhachand Evam Unka Padmapuran
Author(s): Kasturchand Kasliwal
Publisher: Mahavir Granth Academy Jaipur

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Page 554
________________ ४दम पद्मपुराण सोतोदेन्द्र सुपर धरि चित्त । गुणावाद सों ल्याये हित्त ।। पूजा करि पहुंचे सुर लोक । अस्तुति भई तीन लोक ।। ५७२१।। पद्मपुराण के स्वाध्याय का महात्म्प रामचंद गुण समुद्र गंभीर । ममरण किया मिटै सब पीर ।। अनुमात्रक किया बस्त्रांन । रामचन्द्र का पदमपुराण ॥५७२२।। जे कोई सुर्णे उठि पर मात । सुखसेती बीते दिन रात ।। षत्री होई सुणं बलवान । जिहां तिहा कहिये जमवान ॥५७२३।। दुरजन दष्ट लमै सब पाइ । कोई न सनमख जीतं प्राद।। सब परि उसकी होगे जीत । जारण समाल जुध की रीत ।।५७२४।। जे कोई सुणं परम के काः तीन कमरा धरम ध्यान सुपाप न रहै । केवल ग्यांन जीव वह लहे ॥५७२५।। घरम प्रकास जिहां जाह निरवांरा । श्रमें नहीं भवसागर मान || दुखी दलिद्री नर जे सुण । बढे लछि सुख पाने घणे ।।५७२६।। नारि विहुंणा जे नर होछ । मन वांछित फल पावै सोइ ।। पुत्र हेत जौं सुरण पुराण | सुख सम्पति पाद असमान ।। ५७२७।। प्रधवी परि प्रगट जस घरमा । रोग कलेस जाई सव हुण्यां ।। करम उदै ते व्याग दुर । राम सुमरि पार्व मत्र सुख ।।५७२८।। जे पापी सरिग निदा करें । ते जीव घोर नरक में पड़े ।। मिथ्याती प्रनीत ने चित्त । सरधा नहीं धरम सहित ।। ५७२६।। जे समकिती मुगा पूराग़ । पावै गति देव निरवांग ।। थे शिवा नप सांभलि इन्ह भेद । सब मंसय का हुवा खेद ।। ५७३ ३ ।। सकल सभा मन भयो संतोप । बहुत प्राणी या पाई गोत्र ।। श्री जिनवाणी का नाही मत । बचन एक भेद बहु मन ।।५७३१।। गौतम स्वामी को अराई । अमृत वांनी सवै मुहाइ ।। मरव भूत सुरिग हिये त्रिचार । अवधि ग्यांनी समझे निरधार ।।५७३२।। अगसेन भूरति केवनी । मुख पाट जन भावी मली ।। क्रितांतसेन ने लिष्या इह ग्रंथ । फोडि सिलोक संपूरण अर्थ ।।५७३३।। प्रवरान पुराण लिख पड़े। जिसके सुग्णे धरम हित बन्द ।। उनका सिष्य सबदन मुनि भया । इन्द्रसेन मुनि ने पट दिया ।।५७३४।।

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