Book Title: Muni Sabhachand Evam Unka Padmapuran
Author(s): Kasturchand Kasliwal
Publisher: Mahavir Granth Academy Jaipur

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Page 551
________________ मुनि सभाचंद एग उनका पद्मपुराण ४६५ ऐसी हैं ये च्यार कषाय । ज्यों पाषाण सौं तिरघो न जाइ ।। पाथर संग तिरथा है कोई 1 तास समकित रथ ना होइ ।।५६७८।। तजि कषाय तिर संसार । छोहि वेई सिर त सब भार ॥५६७६।। लखण गुणा के मारग जोह । राग दोष छोडें ए सोइ ।। पंच महावत समिति पांच 1 मन बच काया निसचे सांप ।।५६८०।। छह रुति सहै परीसहा अंग । समकित ने दित राख संग ।। सम्यक दरसन ग्यांन मरित्र । इह विध होने जीव पवित्र ॥५९८१।। प्रश्न करना भब जल प? जाइ सिव मध्य । जोति ही जोति मिलिया विध्य ।। सीता इन्द्र किया परसन्न । इह संदेह है मेरे मन्न ।।५६८२।। राजा दसरय जनक ने कनक , अारायसी प्राना ! लानांकुस का सबै वृतांत । इनकी गति भई किस भांति ॥५६८३।। भावमंडल कसी गति सही । इह चिता मेरे चित रही ।। राम को वारणी श्री रामचंद्र की वाणी हुई । भव्य जीव सुरण सब कोई ॥५६८४॥ गजा दसरथ प्राणत विमारण । जनक कनक भी वाही ठाण ॥ अपराजिता केकमी कैकइया । सुप्रभास व देषगति पया ।।५६८५।। दहा ते अपणी मार्गल पुर । एका भय मुकति मै जुरि । भावमंडल तरणी सुरण कथा । भोग भूमि तए ने दोपता ।। ५.६८६।। भोग भूमि का भोगतं सूरन । उनकू ए करती नहीं दुःख ।। सीतेन्द्र पून्हें ये कर जोडि। भावमंडल की कहो बहोडि ।।५६५७।। कुर भोग भूमि कवरण पुन्य नही । उनै तपस्या कीनी नहीं । गमचन्द्र बोन भगवान | भावमंडल का कहै बखान ।।५६८८।। नगर अजोध्या सेठ कू'भपति । मकरी त्रिया सेती बह हित ।। काम वनांक दोन्गु पुत्र । ज्यु शशि की प्रति क्रान्ति ।।५६५६।। भोग मुर्गात दिन बीता घरगे । भया वैगग कुमपति मरो ।। अमृतसोग भुनिवर विंग प्राइ । विक्षा लई मन अच करि काइ ।। ५.६६०।। मकी सुन के तब वगग । इन भी सकल परिग्रह त्याग ।। प्ररथ द्रव्य पुत्रां में दिया । इन भी जाइ जैन वन लिया ॥५६६१।। प्रसोग तिलक वन में घरि जोग । छोडि दिया संसारी भोग । ये दोनू जे सेश के पूल । सुम्न मैं थे लखमी संजुक्त ।।५६६२।1

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