Book Title: Muni Sabhachand Evam Unka Padmapuran
Author(s): Kasturchand Kasliwal
Publisher: Mahavir Granth Academy Jaipur

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Page 549
________________ मुनि सभाचंद एवं उनका पद्मपुराण पूर्व कर सीतेन्द्र बोलं समभाई हूं सीता हूँ लखमरण राई ।। रामचंद्र की श्री पटघरणी । दंडक वन की प्रापति वनी ।।५६५०।। तिहां तप साधै संबुक कुमार | लखमा ने मारिया प्रचुकार || मोहि हरी लंका के नाथ ।। ५६५१ ।। भया जुध खडदूषण साथ रामचंद्र लखमा सुधपाई संग्राम किया रावण सुं आई ।। रावण मारया मोहि श्राणी जीत । उदय भई करम की रोन ।। ४६५२।। घरत मोहि दई निकास । भय दिव्य दीया जीवन को प्रास || लप करि अच्युत स्वर्गं विमान । जैन घरम की मांनी आनि ||५६५३॥ जैन विना नहीं लहिए मुक्ति । लखमरण भया मोह की शक्ति || कारण पार तिहां थी मग्या। छह मांसा लग राम लिये फिरा ।। १.६५४।। कृततिवक भने सुर जटा । उनही संबोध्या मोह तब घटा ॥ बालुका पृथ्वी में रामकुमार की ૪. रामचंद्र ने दिष्या लई । केवल लबधि ग्यान की भई ।। ३६५.५ ।। सी सुरत प्रभा भया । दया भाव के मन भया । रावण लखमरण संबुकुमार । ती बालुका भूम मकार || ५६५३६ । इनस देव कहूँ समझा। तुम दुख दूर करो ले जा || लखमरण कु जब लिया उठाइ । देही बिखर गई तिहाइ ५६६७ ।। बहू विष जतन किया हि ठांई । पायें नहीं उनका जीव उपाई ॥ ज्यों बरवरण में झाँई देखि | हाथ न आ किस ही भेप || ५६५८ सी भांति नारकी देह । दीसे प्रतिस् हाथ लगाया विखरी पटै । नरक मांहि बेर बेर दुख पावें घरों । सब लखमण इह विभ हम तो वांच्या करम अथाह । भुगत्या बिन न छूटा जाई ६१५६६०।। अब के करम मुगत्यां ही बर । भैंसी तुम पास हम सुखें ॥1 बहरिन या सी गति । इहां सुरंगी कब लहैं मुगति ॥ ५६६१ ॥ पर्ज सनेह || परस्पर भिड़े ।। ५६५६ । देव कहै समकित मन घरो । सुगति करम एक भव ते करउ || तप करि पहुंचोगे निरवाण । बहुरि न मैं चतुरगति श्रांन || ५६६२॥ समकित दिन बीत्यो बहुकाल | कबहुं न चुका माया जाल ।। बिन निरास डोल्पा बहु जोनि । क्यारू गति में कीयो गौंन ।। ५६६३ ।।

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