Book Title: Muni Sabhachand Evam Unka Padmapuran
Author(s): Kasturchand Kasliwal
Publisher: Mahavir Granth Academy Jaipur

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Page 540
________________ पापुराण कोई नहीं जज का समा । तुम अर सुभ कर्म सग सग्या ।। सुभ साता ते पागे सुम्न । प्रमुख उदय ते पागे दुख ।।५५३२।। मुबा न जी किस ही भांति । मैं क्यू दुग्न किया दिन रात ।। निकलप चुक्या भया संतोष । ग्यान लहर सू काया पोष ।।५५३३।। तिहां देव करी वादली । पवन सुवास चली तिहां भली ।। नांनी बूद मेह की घुगे । देवांगनां चरान कू नये ॥५५३४।। गानें गीत सुहावना बोल । ताल मृदंग बजाचे ढोल || रामचद्र गुण गाने पान । महा सुकंठ सुहावनां तान ।।५५३५। दोनू गुर तिहां प्रस्तुति करें । तत्र रघुनाथ पूछ उन खरै ।। तुम हो कवण कहो गांची बात । रूप प्ररुप बिराज कांति ।।५५३६।। वाह देव हम तुम्हारे भगत । जटा पस्नी मैं पाई सुर गति ।। जब रावण ने सीता हरी । तव में अपणी बल बहू करी ।।५५३७।। उन मुन नै डारियां रोड । तुम ही सुनाए पंचनाम बहोरि ॥ तुम प्रसाद मैं हुवा देव । सुग्न' में कबहुं जाण्यां भेव ।।५५.३८।। सीता की सुध वीसर गया । तुम कारिज मै कबहु न किया । तुम व्याकुल लखमण के काज । तव मुझ मासग कांप्मो प्राज 1॥५५३६।। इह कृतांतदक का जीव । सकल भूषण पं सुनी धरम की नींव ।। सुम वचन कीया धा एह । जे तुम लहो देव की देह ॥५५४०।। हम माया में रहैं मुलाइ । बा समै हमें समोभियो भाइ ।। जटा देव जब तुम पंचया । तब हम सों मारग में मिल्या ||५५४१।। हम भी सुरिग पाये तुम पास ! अब तुम करो मुगति की आस ।। विद्याधर ग्रनै भूमिगोचरौं । सगली समा राम ढिंग जुडी ।।५५४२॥ सत्रषन सूबरेल राम । मध्य लोग की भगतो टांग ।। राज विभूति दई सब तोहि । उत्तम घिमां कीजिए मोहि ।।५५४३।। सत्रुधन विनवै ति बार । तुम प्रसाद भुगत्या संसार ।। राज भोग में किया अथाह । तुम कौ छोडि कहां हम जायं ॥५५४४।। हम थी कर तपस्या संग । राज भोग जिन रंग पतंग ।। तप करि साधे यातम ग्यांन । बहुरि न भ्रमैं भवसायर मान 11५५४५|| राम सत्रुघन चिता इस धरी । सकल सभा मिल प्रस्तुति करी ।। पन्य राम त्रिभुवन पति राइ । घरम ध्यान यूमन दिढ ल्याई ॥५५४६।।

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