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पद्मपुराण
ताहि देष मन सोचे व्रत । लषन दोस राज संयुत्त ।। जो इह बैठया कोई और । तउ टोकैगा जाते पार ।।३८६॥ चल्या दूत तब पौरि मझार । तिहां पौलिया हमा अग्रवार || पूछे कोण किहा तू जात । वह हमसौं समझाषी बात ।।३८७।। कहै दूत मो भेज्या भरत । राजा सौं पहुंचायो सुरत ।। गया पौलिया राजा पास । नमस्कार करि बिनती भास ।।३८८।। राजसभा सुरपति सी जुरी को सैन्यादि धी। राजसभा में पाया दूत । नमस्कार तब करि बहुत ।।३।। ठाडा भया दूत की ठौर । ठीक ठिकाने ठाडे और ।। पूर्ण भूप भरत कुसलात । बोल्या दूत घरि मस्तक हाथ ॥३६०।। भरत पक्रधारी बलर्वत । छह पंड जीते सामंत ॥ नरपति नगपति माने सेब । छचं षंडका राणा न भेव ||३६१|| तुम भी उनकी सेवा करो । प्राज्ञा जाकी मत वीसरी ॥ इतनी सुनि कोप्या भूपति । अजहूं वाके नाही थिति ।। ३६२॥ जे वह कर चक्र की मनी । चक्रवत्ति कुंभारा भी मनी ।। भरत नाम भीड़े का कहै । इता गर्व क्यों उसमें रहे ॥३६॥ मी को दिया पिता ने राम । वह हम स्यों क्या राष काज ।। जो वाकं मन होय संदेह । करो जुध प्रावो सु सनेह ।।३६४।। इतनी सुरिण फिर आया दूत | कही बात मुरिण कोप्या बहुत ।।
सुतउ केहरि मारधन केन । जानु पङमा अगनि में तेल ।।३६५ । भरत बाहुबली युर
जानू सकती हिये में लगी । राते नयन लहर सी लगी ।। नगर मांहि बाज निसान । सेना बहुत जूरी तिहा प्रान ॥३६६ सुर सुभट निकसे वानेत । अंगन मोई जुहिमा षेत ।। ह्य गय रथ पापक बहु चसे । याजै मारू बागे भले ।।३६७॥ सेना तिहां चली चतुरंग । पहर प्रांभर्न खरे सुरंग ।। उडियन छाया प्रासमांन । ऊचल भया चंद मरु भान ॥३६॥ थरहराट कर सब मही। कंपे गिरवर जलहर सही॥ जिहाँ जाम सेना उतरई । प्रथिवी सही न रीती पिरई ॥३६६।। सुरत सुनी बाहुबल बली । सूरबीर मानी बह रली ।। साजी सैन्य भया असवार । घरमा आग मारग अडवार ।।४००।