Book Title: Muni Sabhachand Evam Unka Padmapuran
Author(s): Kasturchand Kasliwal
Publisher: Mahavir Granth Academy Jaipur

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Page 504
________________ पनमुराण घारगी नाम थी पटषणी । सौलपंत सोभासु वणी ।। पदमपुत्र जसकं गरभ भया । देव जीव सुख दाई थया ।।५०४२।। निसतर छाया धरमेष्ट । श्री दत्तारासी सम्यगदृष्टि || प्रजा सुखी दुखी कोई नाहि । सघन गेह सिंहां शीतल छांह |१८०४३।। पदमपि 1 असर। ष. देपा सिंहर: मत बाइवे थी पठचा बिललाइ । वाहि देखि उपजी दया माद ।। ५०४४।। उत्तर भूमि का लिंग गया । पांच नाम श्रवण में दिया । श्रीदत्ता गर्भ उपज्यो सो प्राइ । वृषभध्वज पुत्र कंचन सम का ॥५०४५|| जनम सम दीया बहु दान । सव ही का राख्या सनमान || दिन दिन कुमर बघ मुख माहि । सात बरस का हुवा नरनाह ।।५०४६।। जिह बन में मुवा या बद्दल | वा वन निफस्या करण सहल । देखि भूमि भव सुमरए लई । उतरा तिहां पिछली सुष थई ।।५०४३।। हं था वृषभ मरया या परया । पंचनाम किण ही कहा खरा ।। बहे प्रसाद राजा सुस भया । भव सुमरण चित में थमा ।।५०४८।। जेहुं मरता यू ही परा । अंसा जनम कहां से धरथा । अब जे उसकू देखू प्राजि । देहिं सकल वाहि कू राज ॥५०४६।। राज कुबर इहै प्राज्ञा दई । चैत्यालय नीव दिवायो सही ।। कोस एकलों देहुरा करचा । तिहा चितराम बहुल विध पाया ।।५०५०।। भांति भांति के चित्र संघारि । वेद पुराण लिखाए सिंह बार ।। जिन चौईसौं बिब करा ! वृषभ की सूरत पोलि लिलवाइ ।।५०५१॥ तिहां रखबाले राखे घणे । दुष्ट मिथ्यादृष्टि हणं 1। पदमरुचि सेठ पाया देहुरे । सहस्रकूट ध्वजा फर हरे ।। ५.०५२॥ देखो पोलि' वृषभ का रूप । पिछली सुरस संभालि स्वरूप ।। ध्यान लगाइ रहा तिहां सेठ । किंकर गया राजा के दिठ ।।५०५३।। कही बात व्योरा सुजाइ । प्रामा कुवर जिण्य मंदिर ठाइ ।। पदमरुचि देख्या राजकुमार । रहे थकित होई इतनी बार ॥५.५।। सघ पूर्छ धुषभध्वा राइ। तू काहा देख रह्या रिझाइ । कह सेठ पिछला विरतांत । सुनकरि प्रागंया बहु भांति ।।५०५५।। घन्य पदम रुचि सेरी बुद्धि 1 ताते पाई में वह रिद्ध । तुम प्रसाद मैं यह गति लही । जो मन इच्छे सो छों सही ५५०५६।।

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