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मुनि सभावन्त एवं उनका पद्मपुराण
राजा सुनि मुनिवर बिग गया। नमस्कार करि ठाढा भया ।। कर वीनती मस्तक नाय । पाप करम में किया प्रवाह || ५३३३३ कैसे टरे पाप का दोष । गुरु संगति से लहिन मोष्य || मुनिवर करें ग्यान यह राजा से
मन लाइ || ५३३४ ||
कुलवर्धन कु राजा किया कोटभ ने भी दीक्षा धरी ।
था प्राइ संयम व्रत लिया । करें तपस्या दोन मिल खगे ।। ३५३५ ।।
सूरज सर्प परवत की सिला । काया तथै पसीना चल्या || वह पाप देह तं खंड | ग्यानामृत को पी छूटि ।। ५३३६ ।।
वर्षा में तरुतलि वरं । मुसलधार मेह की पई ॥ मछर डांस तनमें लगे । बयाल प्राई आइ के लगे ।। ५३३७॥
सीयाले सरबर को पाल पई तुसार चलें बहु व्यार ॥ परित माहि परीस्या सह । वाईस विध कही है त्युं तन दहें ।। ५३३८ ।।
सातप करि करी है देह । अच्युत स्वर्ग इन्द्र पद एह ॥
उनकी प्रति इन्द्र सीता जीव । तह्काल चिर सुख की नींव । ५३३६
मधुकोटभ च्युत विमान दोऊं भए कृष्ण भरि ग्राय
।
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मधु का जीव भया पद्म मन कीटभ हुन संबु कुमार
तिहां तें चए द्वारामती ग्रान ॥ रूपवंत बल सोभैं काय ।। ५३४० ॥
रुकमण में गर्भ पाईज जंन ॥ जांबवती उर लिया अवतार ||५३४१ ।।
वृह
कथा कही पशुमन की, श्री जिनवर समभाव ||
श्री गौतम विधि सों भली, सुणी जु श्रेणिक राइ ।। ५३४२ ।।
जो सुरी हैं एह पुरांण, ते निसचं समकित गर्दै ||
पावैं अमर विमारा, दया श्रंग मनमा रहे ।। ५३४३ ।।
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इति श्री पद्मपुराणे मधु कीटक भव विधानक
१०३ वां विधानक चौपई
inपुर तिहां कंचन रथ । सुरेन्द्र इन्द्र गुन करि समरस्य ॥ दोइ कन्या ताक वर सुता । रूप लक्ष्यण गुंरंग करि सोभिता || ५३४४०