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मुनि सभाव एवं उनका पमपुराण
दिष्या ले बैठे गुरु पासि ! पूनं तिहां मनोरथ मास ।।
रामचंद्र थे बडा श्रेष्ठ । सीता भामंडल कुमर प्रष्ट ।।५४३७।। हनुमान लखमण अब मुवे । विछडे सकल प्रचंमै भए ।। वह बिमूति इन्द्र सम भई । एक दिवस में सब घिर गई ।।५४३८।। इह संसार जु र म पतंग । सब र गिये महा सूरग ।। उतरतां चार न लाग ताहि । तब इसका कहा पतियाय ॥५४३६।। तासू बहुत लगावै रुचि । भूलि गई अगली सब सुचि ।।५४४०।।
राज किया तिहं पंड का, भुगत्या सुख अपार ॥ पुन्य विभव सब खिरगई, जात न लागी बार ।।५४४१।। इति श्री राक्ष कापुस पा विधायक
१०८ वा विधानक
चौपई लक्ष्मण को मृत्यु पर राम का विलाप
रामचंद्र देखें निरताह । पीत बरण देखें सब काइ।। किह कारण काठा इह भ्रात । मुख सों कबहुं न बोलै बात ॥५४४२।। अन्य दिबस मोहि पाबत देखि । मादर करता पटाभिषेक ।। मेरे साथ बहुत दुख सहे । दंडक वन माहीं जब हम रहे ।।५४४३।। रावण मारे मेरे काज । रघुबंसी की राषी लाज ।। तुम बिना कसे जीउं पाप । कैसे इह मेटो संताप ||५४४४।। सुकोमल देह टटोल राम । सीता मोह व्याप्पा इस ठाम ।। भबन न बोल होइ रह्या मूक । मोसों कहा भई अब चूका ।।५४४५।। उठि लखमग तु लेह संभालि । लवनांकुस बन गये कुमार ।। दिक्षा कारण बन में गये । फेरो उनकू जती न भए ।।५४४६।। जब वह जाय कर लेसी जोग । तब हुवेगा मन सोग ।। धे बालक बहु कोमल अंग । कसे पाने दिष्या गुरु संग ।।५४४७।। उना की वय है भोग विलास । रहई जनों वन माहि प्रावास ।। अब तुम उठ करि ल्यावौ फेरि । रामचंद्र बोले बहु बेरि ।।५४४८।। जद्धिगया हंस वह मृतक पडे । राम विवेकी माह मा नडे ।। मुवा मानुष कैसे बोल बोल 1 माया के बसि हुमा भोल ।।५४४६।।