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मुनि सभाचंद एवं इनका पमपुराण
सप्त सत्य षट् द्रव्य बखांन । नव पदारथ कहें सुर ग्यांन ।। सुरगं देव सब प्रस्तुति करें । प्रभु ए भेद कब वावरण पै पड़ें ।।५४०६।। मनुष्य बिना न तपस्या होइ । देव परम करि राके न कोइ ।। पूजा देव करण समरथ । जैन घरम बिन सबै अकथ ।।५.४१०।। अरिहंत देव सम अन्य न देव । और धरम जनम का भेव ।। मिश्याती सास्त्र जे कहै । उसके वचन न चित्त में गहै ।।५४११।। वकता सरोता नरक जाइ । तिहां की नाहिं दया सुभाव ।। श्री जिनवाणी जीवन मूल । मुमकित को छोडो जिन भुल ॥५४१२ देव एक बुलाइ सभा । मध्यलोक में जन मैं जाइ ।। तिहां माया में होद अचेत ! कैसे पले धरम लों हेत ।।५४१३।। राम लखमा ब्रह्मलोक ते चए । ते माया में मयमत भए । रामचन्द्र लखमरण सों प्रीत । पल नहीं बिछाई भैसी रीत ।१५४१४।। माह के बासे दोनू है घणे । एक च अष्ट करम कु हने ।। प्रीति न छोडें किस ही भांति । यू ही उनकी प्राव विहात ।।५४१५।।
दहा भोग भुगत मान रली, दियो धरम बिसराई ।। दया विहूंणा मानवी, किन न पाच भष पार ||५४१६॥ इति श्री परापुराणे संकर सुर संकर कया विधानक
१०७ वां विधानक
चौपई रतन चूल भर तमचूल । दोनू देव प्रणाष का मूल ।। एता क ह्या उना का मोह । पल नहीं होब उनका विछोह ।। ५४१७॥ इन्द्र बात में प्राणी हिये । वोन्यू चाहँ परचा लिये। मध्य लोक पाया दोउ देव । कहै इक देखें इनका भेव ।।५४१०।। रामचन्दर के मन्दिर गए । जुगल देवता परपंच किये ।। मायामई एक परपंच रच्या। मंदिर में रुदन मचाया सचा ।।५४१६।। राम राम करि रो नारि । पीट सिर मांडारं वारि ।। पोलिये रुदन सुण्यां तिहबार । दोडया पाया लखमण द्वार ।।५४२०।।