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मुनि सभाचंद एवं उनका पद्मपुराण
राजा मघु श्रति प्रतापी भए । नाम सुरंगत श्ररि उठि गए । सर्व नृपति मान सिंह आरण ए भुविपरि रविचंद्र समाश ।। ५३०४ ।। राजा भीम न मानें संक । जसके गढ़ प्रति विरुट विक ॥
सिह कारण राजा मधु चला । वीरसेन मारग में मिल्या ।। ५३०५ ।।
निग्रोध नगर में करि सनमान 1 बहुत बेट ग्रागें धरी प्रांन ॥ चन्द्राभा वीरसेन की प्रस्तरी । रूपनंत लावण्य गुण भरी ||५.३०६॥
की भाइ झरोखे द्वारि । भाई देखी नीर मंभारि ।। राजा भया मुरछावंत । जाणों भए प्राण का मंत २।१३०७ ।।
चेत्यो राजा करें बिचार | फिरतो आई करू उपचार ||
भीम राजा से मांड्या खेत
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बांध्या तुरंत जुध के हेत ।।५३०८ ||
माया तुरंत अजोध्या देस
चंद्राभा मन खुटक नरेस ।।
देस देस को लेख पटाइ । सब कूटंब तब नृपति नाय ||५.३०१ ।।
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आए सकल देस के सूप जीमया दीघा महा अनूप ॥
काहूँ कु स्वस्थ दिया सिरपाव । किहूं कू गज परगने गांव ।। ५३१०
aasi दिया जिस्मा परवीन सो कुटुंब का राख्या मनि ॥३ वीरसेन सो सी कहो। तुम भी जावो अपनी मही ।। ५३११||
कछू आभरण संवरंगा अभी । विदा करस्यां चंद्राभा तभी || वीरसेन ने किया पयति । मधु राजा चन्द्राभा मान ।।५३१२। मसहपुर पटराणी अपि । राजा मनमें विचारधा पाप || भोग मुगलि सौंवीतं काल । राजा तजी बरम की लाज ।। १३१३ ।।
जे रखवाला चन्द्रा पास ते सब भाजे होइ निरास ॥
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बोरसेन कू वह सुध भई | चन्द्राभा छीन उनु नै लई ।। ५३१४ ।।
वीरसेन बहुत विललाइ । बलवंत सो कछु न बसाइ ॥ यह प्रथवीपति जार्क हैं देस । इह अधीन इह ना नरेश ।। ५३१५।। छांडी राज फिरे विकराल | व्याप्या होए नारी का साल ||
नमें फिर अधिक बिललाइ । वाकेँ चित्त कबहु न बसाइ ।।५३१६॥
करें पुकार बिर गिर फिर भूमि | ऐसी महा मचावं घूमि ॥ चन्द्राभा ऊंचा सू देखि | कंत फिरे है श्र से भेस ।।५३१७॥ बेर बेर राखी पिछुताइ । मांहरे दुःख फिर इन भाइ ।। राजभिष्ट हो डोल मही । इसके कोई सहाई नहीं ।।५३१८ ।।