Book Title: Muni Sabhachand Evam Unka Padmapuran
Author(s): Kasturchand Kasliwal
Publisher: Mahavir Granth Academy Jaipur

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Page 526
________________ पपपुराण स्वयंवर रच्या बुलाये राइ । देस प्रदेस बसीठ पठाइ ।। नृपति पाये कांचन पुरी । सहु मूपति की सीमा जुरी ।।५३४५।। रथ परि बैठी दोन्युपुत्तरी । जगतिपति कंचुकी मति स्नरी । सबहन का नाम कंचुकी कहै । कन्या दृष्ट न कोई लहै ।।५३४६।। विद्याधर देखिया नरेस । भूमिगोरिया दिस कियो प्रवेस ।। राजा सकल प्रचंभा करें । अब इस कन्मा किस कुंवरै ।।५३४७।। कन्या के विना हि प्राव कोइ । मान भंग सब भूपति होइ ।। लवनांकुस देखिया कुमार । फूलमाल गल गरे हार ॥५३४८।। जे में कार कर सह लोग । लखमण के सुत मान्या सोग । माठ पुत्र त्रिरा से पंचास । भए कोग मन धरै उदास ।।५.३४६।। लवनांकस हम ते क्या भले । धाली माल इनां के गले ।। हम मांडेंगे इनसे राठि । भूपति सब मिल कर विभाड ॥५३५०11 इनकै हीए गांठ यह पड़ी । कैसे छट इह यस घडी 11 पाठ भूप की कन्या पाठ । वे माला ले वहठी दे गांठ ।।५३५१।। पाछु के गले माली माल ! के नसे !! मंदाप्रगनि लवन नै व्याहि । ससोकचक्रा मदनसि नांहि ॥५३५२।। प्राउ व्याह प्राकु भए । अधिक सुख उपज्या उंन हीए । लवनांकुस को पाठों देखि । बहुरि मनमा करें परेसि ।।५३५३।। हम तो है नारायण पुष । तीन पंड मां रह्यो न सत्रु ।। रावण मारमा हमारे पिता । जीत्या सकल देस पुर जिता ।।५३५४।। तीन से अठावन हम बीर । महाबली भर साहस पीर ।। जो कछु है सो हमारा दल । हम समान किसका है बल ॥५३३५।। मान भंग हमारा किमर । उनै ब्याह लवनांकुस लिया । जे ए हमस मार्ड युष । मार गुमांवां इनकी सुध ।।५३५६।। रूपमती सुत कह विचार । सुमारी हांसी हुवै संसार ।। तुम तीनस अठावन वीर | ए कन्या थी दो सरीर ।।५३५७|| कैसे होता तुम सों काज । कैसी रहै तुमा कुल लाज ।। राम लखमण है बहु प्रीत । दुख सुख भुगतै एफ रीत ।।५३५८।।

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