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पद्मपुराण
कबही अरि अरु कद ही मित्र । कबही माता होइ कालत्र ।। काबही राजा कबही रंक । कबही ठाकुर सेब निसंके ।।५२६१।। काबही धार देव स्वरूप । कबही दुनिया महा कुरूप ।। कबहीं कामदेव उरिणहार । कबही कुष्टी रोग अपार ।।५२६२।। जसे फिर रहठ की घडी । कयही रीती कवहीं भरी ॥ जैसी सुणि सब संसय गया । अष्टांग नमस्कार तय किया ।।५२६३।। प्रमुजी मोकू दिव्या देहु । बाँह पकष्टि हूं व्रत ग्रह लेह ॥ मुनिवर काहै फेरि घरि जाइ । प्रागा माँगि कुटंब पं प्राइ ।।५२६४।। सबै दिव्या देनी सुम्हें सही। विन आगन्या तपस्या नहीं कही ।। प्रमुजी पाए मापने गेह । सकल सभा का मिट'घा संदेह ।। ५२६५।। के समझि परै चारित्र । किन ही लीया श्रावक व्रत ।। जिहाँ तिहाँ कथा अहे बलं । दोन्यु विप्र मनमे जलें ॥५२६६।। स्थाल जोनि से वे विप्र भए । काम निर्जरा पंडित पर 1 इतनी जात कहा है देव । जारी नहीं धरम का भेष ॥५२६७५ ब्राह्मण देव कहा और स्वरूप । प्रगनि देव कहें मर भूप ।। कैसे मए देब एह जीव । करै कर्म पाप की नींव 1॥५२६: 1 ब्रह्म सों परमातम चिस्व । संयम क्रिया की विध किन्न ।। ए पापी होमैं अगिरणत जोव । कर वृत्त पाप की नींब ||५२६६।।
कंद मूल फल लेह प्रहार | पुन्य पाप को नहीं विचार ।। निस भोजन भरण छानो नीर | दया भेद जाणे' नहीं पीर ॥५२७० । सपं देव कसें करि होइ । जिसके दृस्या न जी कोई ॥ अगति धया कर नहीं काई । जो कछु पड़े भस्म होइ जाई ।।५२७१।। मुरख पुरुष ने देवता कहैं । ग्यान भाव का भेद न लहें ॥ वित्र वही जो पाले दया । धन्य साध जो इह विष तप किया ।।५२७२।। पूरब भव की जाणे बात । उनत अवर न उत्तिम जात ।। राजा रंक सफल ही लोग । प्रसतुति कर जे साप योग ।।५२७३।। विप्र के मन भया विरोष । निस पाए धरि चित्त विरोध ।। कादि खड़ग दोनू एक बार । बहुरि करें धरम विचार ।।५२७४।।