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मुनि समाव एवं उनका पमपुराण
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पूर्व कथा
तब सउवतीधी सीती तहां । तब पाईमा वन में तप गह्मा ।। वन में सिंह गरजनां करं । इससी विघा सब ही डर ॥५१६७।। सरस निरस मास के पास्त । पर घर भोजन मुख से नहीं भाख ।। वे दुख कैसे सीता सहै । वेर बैर रघुपति इम कहैं ।।५१६८।। सरस सियाल भयानक पणे । प्रसे सनद जब सीता सूर्ण ।। कैसे जीवंगी उस ठौर । च उदहै प्राठ परीसह सह मोर ।। ५१६६।। संसार स्वरूप का किया विचार । रामचन्द्र समझे तिह बार ।। पाय सीता सात
सकार दरसन को करमा ३५१७०।। लखमरण किमा घरण कौं भाई। सीता गुण बरावं सुभाई ।। धन्य सीता राख्या दिव सत्त । अपवाद माया लोकां के चित्त ॥५१७१।। ', जे जन लेता विष्या जाई । रहता संदेह हर कमन राई ।। प्रगनि कुंडसे जलहर भया । सब के मन का संसय गया ।।५१७२।। दोनु कुल की राखी लाज । पाप किया प्रातम का काज ।। पूरय भव पूज्या जिम देव । तो निसर्च कीनी जिन सेव ॥५१७३।1 एक भवंतर पार्थ मोक्ष । बहुरि लगेगा देवतां सुख । लबनाकुस कारें नमस्कार । दई प्रक्रमा बारंबार ।।५१७४।। भूपति सफल करें रंगेत । प्रसतुति बोस लोग बहुत ।। सब ही फर नगर को चले । हय गम रथ पायक बहु मिले ।।५१७५।। नर नारी देखें बहु भाइ । बहुत सखी से समुझाइ ।। मंसी विभव सीतां गई छोडि । सई परीसह बन की छोडि ।।६१६६।। जैन घरम का दुरधर जोग । स्वरग लोक सम छांडे भोग ।। कोई कहै धन्य रामचन्द्र । परजा कारण सह्या सब दुव ।।५१७७।। मोह तजि सीता दई कादि । विछोहा तन सह्मा है वांदि ।। कोई कहे सीता करी बुरी । पुत्र जपती ममता नैं करी ।।५१७८|| मन में घरचा न उनका मोह । पल में सब ही का किया विछोह ।। ए बालक उपजे जस कुख । खीर पिलाई पुत्र नै पोखि ।।५१७६।। ते माया दई सबै विसारि । बैंठी वन में तिही उजाडि ।। कोई कहै इह लौं सनम' । घर परियण सब जाण्यां पंष ।।५१८०।।