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घरम वृक्ष की पाई छ । ति ठा ठि मिटाऊं दाह ।। दिध्या लेहूं रिपी के पास । गुरु संगति पूजे मन भास ।। ५१५४।। रामचंद्र बोलै समझाइ तू सुखिया कोमल है का || सेज परंतर फूल भरी यूनिव
पंचामृत लेता हो महार। इस गोरस बटु सौज संभार || पल पल होई तुम्हारी सार । कैसे लेहू संजम भार ।। ५१५६६।
जैन घरम की क्रिया कठिन । कंसें पल सुमारा जतन ।। भूमि सोवणां निरस प्रहार | बाईस परीसह दुःख प्रपार ।। ५१५.७।।
पद्मपुराण
घरि घरि भोजन लेहु उदंड । राव रंक कब भेद न मंड || हम भी दिखा ले है जाइ । हमारे संग होम्यो रिराइ ।। ५१३८ ।।
वृतांत बोलै भूपती । एही वार में होउं जती ॥1
फिर बोले अापण रघुनाथ । रुक जावी तब हमारे साथ ।।५१५६ ।।
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सहदेवगति किसही सुरंग । संभाल कीजियो मितर चर मैं मैं माया मांहि भुलाव । तुम संवोध ज्यौ मित्र सुभाव ।।५१६० ।।
तब दिक्षा ले में भी तिरू । बहुरि न भवसागर में प कृततिष को भाग्या दई । सब ममता मन से मिट गई ।। ५१६१ ।।
वहा
कृतांत वक्र तब सोरसोग, क्सन सुविक्रम निक्रांत ॥ बहुतों ने दिष्या घरी, ग्यान मंत विध्यात । ५१६२ ।।
चौपई
सीता के संगी श्रारणिका घनी, अधिक प्रताप विराजे वणी || सत प्रवत्त दिप सब देह रामचंद्र मन उपजा नेह ।। ५१६३ ।।
रहे ध्यान घरि करें विचार । मो संग डोली सब संसार ||
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लोगों कारण मैं वर्षे निकार ति से हुबा दुःख अपार ।।५१६४ ।।
प्रति कोमल सीता की देह । बनमें जोग लिया तजि गेह ॥ में भई उत्तम सिया सोखि पाट पटंवर सिज्या सोंडि ।।५१६५ । ।
पान फूल कोमल प्राहार। सखी सहेली करतीं सार ||
राग रंग पखावज बीन । कथा कहानी कहें प्रवीण ।।५१६६ ।।