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मेंरदत्त सेठ नसे तस मधि सुनंदा प्रसतरी महा सुबुषि ।। सार्क गरभ भए दो पूत । रूप सख्यण सोभा बहुत ।।५०१२ ।।
पद्मपुराण
प्रथम धनदत्त दूजा वसुदत्त । जगबल एक प्रोहित सोहुत ॥ सागरदत्त वणिक तिहां बसे । कनकप्रभा कामिनी संग र ।।५०१३।।
गुणवंती ताकं पुत्तरी । रूपवंत लावण्य गुणभरी ।।
जोवनवंती गुणवंती भई। पिता जाइ घनदत्त नं दई ||५०१४ ||
तिर श्रीफल
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श्रीकांत नामणिक तिहां बसे । जाकै दीनार बारह कोहि लसे || ५०१५॥ः
उनके मन तब बैठी बुरी घनदस सु सगाई क्युं करी ॥ मेसी नारि सो मो गेह । माता सुशि पुत्र को नेह ||५०१६ ||
धीरज मों समभाव बात 1 चिंता सों बहुहुवं दुखी गात ॥
अब मैं जाइ करि करू ं उपान | राखि पुत्र अपणां मन ठांव ११५०१७ ।।
माता वचन मुसि छोडघा सोच | सागरदत्त घरि प्राय पहुंत || कनकप्रभा सु जाइ करि मिली। मनकी बात प्रगासी भली ॥ ५०१८ ।।
कहाँ नयदत्त कहां घनदत्त । वाका घर श्राश्रा तुम चित्त ।। कन्या दीजये इसा ने जांइ । मेरे लखमी की अधिकार || २०१६।।
द्वादस कोड़ि दीनार घर मांहि । मेरी सरभर कोई नाहि ॥ फेर सगाई अपनी लेह । मेरा पुत्र में कन्या देह ||५०२०।। रतनप्रभा सुरिश मन ललचाइ । कहैं कंत ने और ही दिढाइ || श्रीकांत है महा बलवंत । रूप लष्मण महा सोभावंत ||५०२१। सब तें" सुखी लक्ष्मी का धणी । वाहि देन कन्या छापणी || धनदत्त सेती लेहु डाइ । बोली में से घरली छह भाइ ।। ५०२२|| वसुदत सुरिंग कोप्या बहु मांत । क्रोष चढे मसले दोठ हाथ || श्रीकांत खोटी बुधि लाग । चाहे धनदत्त की मांग ।। ५०२३।। जगबल सेती मता बिचार | गह्या खडग छिज्या सिंह बार || अरब समय श्रधिवारी रयन । वसुदत्त चल्या कपि ते नैन ||५०२४ ।।
नौस बरण के वसतर सोझि जतन किया वैरी के काज ॥1 श्रीकांत की पहुंच्या पौल। सोवत लह्या बगीचे ठोरि ||५०२५|| वसुदत्त ने तब सोच्या ध्यान । अरण चिस्या का हणु परान || श्रीकांत सो जणाई सार । तो में बल अधिक तो संभार ॥१५०२६ ।।