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पद्मपुरा
नव विष है इरणों का भेद | अपनी प्रतिपनी गुप्न भेव || निछेपनी निछेप का संवेदनी । संसाभिवेद निरवेदनी ॥ ५०७१। पुन भोगचं राग कारनी । जती सरावग विश्व सब भरणी ।। राजा सुगत भयो वंराग । राज विभूत कुटंब सब त्याग || ५०७२ ||
धुरतकांत पुत्र को राज | आप किया दिगंबर साज || समाधिगुपत मुनिवर डिंग जाई । दिक्षा लह मन वच काइ || ५०७३||
तपस्वी जीवन
दवा भाव भातम सु वित्त । सूक्षम बादर अस यावर थित |
सब जीव जारौं श्राप समान । क्रोध लोभ तजि माया मांन ||५०७४ ।।
मास उपवास पारण एक कवही च्यार मास की टेक ॥। दान प्रदता भूल न लेइ । उदंड बिहार इह विष सों करे || ५०६५।।
रहूँ मौनि निसवासर निहां मुनि वाली जीव का आधार । मिथ्यादृष्टी के हिये न सांच सकल विषय छंडी मुनिराज श्राप तिरे त्यारे बहु जीव
कायोत्सर्ग पदमासन जोग । पूजा करें सकल तिहां लोग ॥ धरम ह्त कबड़ी कछु कहां ३५०७६।। अभ्य मुर्गा ते उतरें पार | से विषइंद्री सब पांच || ५०७७।। संसारी सुख मन न सुहात ।। औसा साधु घरम की नींव || ५०७८
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सहस अठार प्रांग समेत सील व्रत पार्टी करि हेल 11 जिर समान परिग्रह है नहीं । दम दिसा अंबर है नहीं ||५०७६ ।। सुमति पांच अरु तीन गुपति सही । बारह व्रत विध सुं पाले ही || स परोसा बीस प्रर्ने दोह 1 बारह अभ्यंतर तप जोड ।।५७८०|| बरामी किरिया को करें । प्राईस मूल गुन छरें ।। समकित सों निश्चों है। वित्त अनुप्रेक्षासु विचारे नित्त ||५०८१ ।। मीयाले सरवर की पाल । पई मीत सिहां महा विकराल || ऊना परवत पर जोग छोडे सकल जाति का भोग ||५०८२ ।। वरखा काल वृष्य तल खरे । तिहां तैं प्यार मास नहीं टरें मछर डांस प्रति उसे बयाल । निरभय निचित मन की चाल ।। ५०६३।।
देही छोडि ब्रह्म सुमन | भया इन्द्र महा बलवांन ॥
बस सागर की पूरण आय । ते सुख किस पे वरण्यां जाई ||५०८४ ॥
मृनाल कुंड नगर का नाम । विजयसेन राजा विहं ठांव ॥ रतनचुला तार्क असतरी । वञ्चकुमर जनम्या सुभ घडी ।।५०८५ ||