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मुनि सभाचंच एवं उनका पद्मपुराण
मो सुर्क रि जुध अपार । श्री कांति कर गही सरवार ।। दोनु झुण्या एकण ठांब । भए मृग बंध्याचल भाव ।।५०२७।। सागरदत्त सूरिग इह बात । रत्नप्रभा समझाई उर भर्भात ! ह कन्या धनदत्त कूदई । तेहैं उपाधि उठाई मई ।।५०२८।। ता कारण ते इतनी करी । वाके प्रारण गए इह घरी ।। धनदत्त को दे कन्या विवाह । कीए मंगलाचार उछाह ।।५०२६।। लिख्या लगन साधी सुभ घड़ी । विवाहि दई गुणावती तिद घडी ।। बीता दिन बहत इह भेस । चरचा करें लोग इह देस ।।५०३०।। इनका विवाह प्रभाग्या भया । बसुबत्त जीव एग कारण गया ।। बंसी चरचा सुगी धनदत्त । वैसम भाव धरघो उन चिस १५०३१॥ धिग विवाह धिग यह असतरी । ता कारण बिपति मोहि पड़ी ।। तज्या देस बन मारग गह्यो । वन में रहे का या दुग्ध सहो ।।५०६२।। गूगावंती छोडी घर मांझ । कंत विना भर दिन सांझ ।। मिथ्या धरम निसर्च मन धरै । जैन धरम की निंदा करै । ५७३३॥ मरि करि भ्रमै मृगनी जाइ । बिद्याचल में पाई ठाई ।। जिहां थे मृग दोन्यु इस मेर । हिरनी देप लई घना घेर ।।५०३४।। दूजा मृग दउड्या पाई, ताहि । दोनू मार करि हुवा बाराहि ।। उहां तं मरि हाथी दोई भए । मैं से सांड की पीपीता था ॥५०३५।। वहर मीयाल भ्रम जौंन । बैर नंष साग्या इह गौन ॥ यह धनदत्त फिर बन बीष | बिना नीर तीरषा भए मीच ॥५०३६।। भई रयण तिहां देख्या साध । गहै मौंन जिन परम पाराध ।। उनके कमंडल परिदिष्ट करी । जल पीवण की इछा फी परी ।।५०३७।। मुनिवर अवधि विचारै ग्यांन | इह है भवि जीव इस धान ॥ या को दीजे दया संबोध । पुरण पाव पुजै इहै भोध ।।५०३८।। मौन छोडि बोले तब जती । निस भोजन तै खोटी गती || जल पीवत होवई पाप । पहुं गति में सहै संताप १५.०३६।। अपणे हाथ हम जलन देह । तेरा मन इस तो लेह ॥ धनदत्त के मन निसचे भई 1 अनपाणी निस प्राखल्जी लई ।।५०४011 देहि छोडि सौधर्म विमान । महा रिर्वत सब में प्रवान ।। मुगति प्राव श्रेष्टपूर नगर । मेर सेठ नौमी सरगर ॥५०४१५ ।