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तुमारा चित्र सीस घरि लिया। ता कारण मैं तुम हर लिया || चलो बेग तुम करहू बियाह । मिरैं सकल हिरदे के दाह ॥ ४०४॥
सुरज उदयपुर में सब गये । राजा पास बधावा गये ! सुभ लगने व्याही सुवरी । भोग मगन में बीते घड़ी || ४०५ ॥ गंगा महींदर भूप दो भए क्रोध के रूप ॥
इन परदेसी में कन्या दई । हमारी उसने कारण न लई ||४०६।३
सेन्यां ले बल दोंडे सूर विद्याधर विद्या भरपूर सुरज उदयपुर पेरघा प्राय । हरिषेण सु कहूँ समुझाय ॥ ४०७ ।।
तुम ग्रह रही हम जा लरन । तुम पाहुरगा न होवे मरण || तब हंसि करि बोले हरिषेन तुम घरि मंठि करो सुखखन || ४०८ हमरी स्युं करि हैं युद्ध । धपणां मन तुम राखो सुषि ॥ सैन साथ ले मुद्दमल भए । सुरवीर तहां जुन बहु भए ।।४०६ ।।
दारुरण जुन भया भीत। हरिषेन को भई तब जीत ।। जीत्या सत्र भया श्रानंद | बाजे बजे महा सुखकंद ॥ ४१० ॥
आयुधशाला कारण भया । चक्र सुदर्शन पाया नया ॥ पूजा करि सुदरसन बंदि । चल्या चक्र जीते छह पंड ||४११ ||
तब आए तापस की पुरी । बारह जोयरण सेन्या परी ॥ सह तापस आये हि बार। श्रासीरवाद दे बारंबार ||४१२ ।।
पद्मपुराण
तब हरषेन कहे हंसि बात में हुं वह जो तुम वरजात ।। तपसी जारिण दया उर घरी । षिमा करी उन वाही घरी ||४१३ ॥
तपसी कहें तुम हो धरमिष्ट पुण्यवंत क्युं होय न कष्ट ।। वन हिंड में पुण्य सहाय । मन वछित सुख उपजं ग्राम ।।४१४ ।।
पुण्य व लक्ष्मी परिवार । पुण्यं भोग लहै संसार | तुम बलवंत मति महापुनीत । तुम कौा सके नर जीत ||४१५||
सब तपस्या मिल प्रस्तुति करी । व्याही नागवसी पुत्तरी ।। पहुंते आय नगर कपिला कंठा कंपण परियरण मिला ||४१६ ||
मात पिता के बंदे पास रथ चलाइया श्री जिमराइ ॥
मुजं राज करें श्रानंद । ठोर ठोर देहुरा जिणंद ।।४१७।।
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