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पपुराण
धन्य साष अंसा तप करें । छह रुति का दुख मन नहीं धरै ॥ चिदानन्द सों ल्याया ध्यान । दया करें राव ऊपर जान ।। ३४३२।। वन में ए तप इण विध किया । जीव दवा संयम ब्रत लिया ।। लमधदास कहैं तुम चलो। त्रिमूषन प्रानंद पिता सू मिलो ॥३४३३।। प्रनंग सेना मन में समझाइ । मैं संन्यास करया रण य ।। छोडे सब संसारी मोह । लबध दास समझाऊं तोह ।।३४३४।। तब उठि गया भूपति मों कहीं । अनंगसग़ देही सब दही ।। उप वन में लीयो सन्यास । छोडि दिये सब भोग विलास ॥३४३५।। त्रिभुवन नंदन देखा निमित्त । प्राया वन में देखी वहुमंत ।। अजगर भया दुरधी का जाप । उन म न पार नाय ।।१४।। इसी अनंगसरा तिहं घडी । देही छोरि स्वर्ग सरी ।। भुगति प्राव द्रोवन मेंघ गेह । गुग्णसाला गर्भ विसल्या एहूँ ।। ३४३७।। इण प्रकार की पाई रिध । चरण उदिक होवे सब सिध ।। त्रिभुवन मंद इह कारण देखि । उपज्यो संसार वैराग परेष ।।३४३८।। जाण्यों इह संसार मरूप । भ्रम्पो जीव धरि नाना रूप ।। देही प्रादि सगो नहीं कोय । संपति लगाां बिछोहा होइ ॥३४३६।। चारू गति भरम्युचिदानंद । सुभ अन असुभ तरणे दोइ फंद 1 कबह रंक कबहु मुवनेस । जसी करनी तैसा भेस ।।३४४०।। मन वच काय लगामा ध्यान । काठि कर्म पहूंच्या निरवाए । वाईस सहस पुत्र समेत । ल्याया चिदानंद सों हेत ।।३४४१।। दुरिम मुनिवर के पास । दिव्या लई सुगति की आस ।। तेरह विध चारित्र प्रत लिया। विधपंच महाव्रत किया ॥३४४२।। तीन रतन बरण्या दस दोइ । बाईस परीसह उन अंग होई ।। उसन काल गिर ऊपर तपै । बरषा सम रुख तलि छिपें ॥३४४३॥ सिमाले सरिता तट ध्यान । उपज्या उन केबलग्यांन ।। गए मुकति तिहां सिध अनंत । ज्योत ही ज्योत भई एकस ॥३४४४।। पुनवसु के त्रिया का सोग । भए दिगंबर यांच्या भोग ।। पच महावत पांचु सुमति । मन बच काया तीनू गुपति ।।३४४५।। बाईस परीसा सह प्रग । द्वादश अनुप्रेक्षा तह संग ॥ छह रुति के सुख दुख सहे सरीर । जारण षटकाय प्राणी की पीर ॥३४४६।।