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कालिन्द्री गम प्रधाह । बुडत बांह गही तुम नहि ॥ उत्तम कुल ए राक्षस वंस । तुम इह किया पाप का अंस || ३६३३ में कुल डोगा परनारी काज । कीर्ति तुम लोई प्रकाज ॥ परनारी के भुगता हार । ते क्षय भए हैं इस संसार ।। ३६३४ ।। अकीत्ति जैसे क्षय गया । श्री विजय की नारी ले गया ||
घोष भने विजयसेन | श्री विजय के मन भया फुचैन || ३६३५| उन अकीति को मारि । रूपणी त्रियां लई तितार ॥ तुमकू भई कुबुद्धि । अप जीव को करी न सुष ।। ३६३६|| सीता देहू रामकू जाहि । निर्भय राज करो तुम राय ॥ का हमारा करो तुरंत । ज्यों नगरी में होवें संत ॥ ३६३७ ।।
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रावण का उत्तर
रात्र कहै मंदोदरी सृणु । अर्क कीति सम मो मति गिलों ॥। मैं जीते हैं सकल नरेस इन्द्रभूप मान्यां आदेस ॥ ३६३८ ।।
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उत्तर प्रत्युतर
पद्मपुरा
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मेरा बल है प्रगतिहुँ लोक । तू कोई चितवं मन सोक ॥ कहां राम हैं भूमि गोचरी । जिसका भय तु चित्त में घरी ।।३६३६। ' उनकी सेना दवट करू । राम है बांध बंदि मैं घरू ॥ जे में आणी सीता नारि । फेर सकू कैसे इस बार ।। ३६४० ।।
मंदोदरी सुणियो माथ मेरा बच्चन तुम मातुं नाथ ॥ ३६४१ || कहां दीपक कहां सुरज कांति । तुम दीपक रवि हैं रघुनाथ ॥ भानु उदय सब दीपक किसा। उनका बल मार्गं तुम जिस १३६४२ ॥ तुम काहे को होवो दुखी। सीता देइ तुम रहो सुखी ।। रावण बोलं करि नीचो माथ करें सोच बहुत है साथ ।।३६४३।। जे पुरुष काहू का कर ग्रहै तो क्यूं छोडं किसी के कई || मोहि भई श्रां की कारण । कैसे छोडू अपणी जाणि ॥ ३६४४ ।।
मंदोदरी विनवे सुणु नरेन्द्र । परनारी है पाप के फंद ॥ कीरत नासं अपजस होइ । पति परतीत करें नहीं कोई ।। ३६४५ ।।
फल इन्द्रायण अधिक स्वरूप | सा परवारी का रूप ||
देखत लागे सोभावंत । फरसत खात लगे विष मंत || ३६४६ ।।
जैसे मणि भूयंग सिर देख जो कोई लोभ करें वह पेष ॥
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उसे बिपाल बाई' तसु प्राण । वह मरिंग तय कोई भुगते प्राण || ३६४७॥