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मुनि सभाबंद एमे उनका पयपुराण
नगर कपिला राजा स्वयंभूत । विमलनाथ दरसन हित जुस ।। वे दोनु मृग प्रा खडे राय ! जिन मंदिर राखे तिहाँ जाय ॥४१८४॥ मनपाणी वास तिहां हरथा । सेवा कर जतन सुखरा ॥ समाधिमरण में त्यागी देह । विनोद जीव सेठ के भया गेह ।।४१८५।। नाम धनदत्त लषमी गेह अपार । वाइस कोडि जुड़ें दीनार ।। रमन जीव लहि स्वर्ग विमान । भए पुत्र पनपत्त के प्रान ||४१८६।। वारुणी नाम सेठ की घणी । यारणी जाके पुत्र थिति वणी ।। निमित्तम्यांनी पंडित बुलाइ । जनमपत्री लई लखाइ ॥४१८७॥ घड़ी मृहस उत्तम बार । उपज्या वराग तजै घर बार ।। इतनी सरणी दंपती वात । पुत्र नै बरजें बाहर जात ।।४१८८॥ वन उपवन मंदिर संवराह । वाणां पीवणां सेवा सार ।। फूल पान उबटणां सनांन । प्राभूषण दे बहुना प्रारण ।।४१८६।। अंसी जुगत दिन बीते घणं । प्रभात समय सुपनों में सुरणे ॥ अगले भवन में दोद आत । घर के मा पर
! भानु उ बाजेतर होई। जै जै सबद कर सब कोई ॥ श्रीधर मुनि की केवल म्यान । ग्रंगी भूप नै सुगी कान ।।४१६१।। पंच भूमि ते देखी भीर । पहच्या चाहे मुनिवर तीर ॥ तब उत्तरं या रााह का कुमार । उस्या भुयंगम खाइ पछाट ।।४१६२ मर करि स्वर्ग मां देवता भया । मनवांछित सुख मुगतै नया ॥ चंद्रातपुर प्रकास यस भूप । माधई राणी महा सरूप ।।४१९३।। उहा ते चया भया जगदूत । पाई सरोष जोवन संजूत ।। प्रकास जस में दिक्षा लई । राज विभूत जग दूत ने दई ॥४१६४।। भोग मगन में बीत काल । दुर्जन दुष्ट तणं सिर साल ॥ राजा कू उपज्या वैराग । राज भोग कू चाहे त्याग ।।४१६५।। मंत्री समझावै राजनीत । संतति बिना नहीं होय प्रतीत ।। अब होइ पुत्र तब छंडो राज | पालो प्रजा धर्म मु काज ।।४१६६॥ राजा कू लागे बुरा सब कर्म । असं प्रत पाल जिणवर धर्म ॥ राजभोग में छडया प्रार । ईसान स्वर्ग पाया सुभ थान ।।४१६७।। जबू द्वीप क्षेत्र विदेह । अचल छत्री वालहरनी सू नेह ।। रतन संचय नगरी का नाम । ईसान स्वर्ग से चया तिह थांन ।।४१९८॥