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मुनि सभाबंद एवं उनका पुरा
हसती भवं रीछ बाराह । प धूप पायें नही छांह || ये दुख कैसे सीता सहै । बहे सुमारे सहाँ में रहे ।। ४६५४ ।।
राम लक्ष्मण का दवन
रामचन्द्र ललमरण सुरिंग छैन । मूर्छा खाई पडे कुचन ॥
हाइ हाय करि धरणी पडे ।
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भोई वेदि जतन बहु करें ||४६५५ ||
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बिन अपराध दुःख दिया नवां || महासती जनक की घिया ||४६५६ । ।
सुम देख्यां विन कैसा जीव अब तो कहां पाऊं सिया । वे दुख देखि लहे थे सुख । अब फिर पाए ऐसा दुःख ॥ कोमल वन कोमल देह । दुख पशु कर है तिहां गेहू ।।४६५७ ।। कटक घर मारग नहीं जले। तिहा सीता जीवस क्यों मिलें || वन में दो लगी है बी सी कठिन सिहां उनकों वणी ||४६५८ ।।
# कोई पस के उसे कीयाल पैसा दुख सौं पाणी सिमा कहां पाऊं में सीता सती मैं तो बुधि करो दुरमती ॥ रतनजी जब तो सुध दई । हनुमान तं पिता गई ।।४६६० ।। किस भेज वन मांहि । स्यावं खबर मिटं दुखदाह || कृतांस
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के कोई भील ले गये बीवाल ||
। अब में देस नौकाला दिया || ४६५६ ।।
तुम बोलो सांच किए विष सहे दुःख की प्रांच ।। ४६६१ ।।
सीता छोडी है कि नहीं। सत्य वचन भाखो तुम सही ||
जैसे कह्या कोष के भाइ । तें ले खीजी वन मे जाइ ।। ४६६२ ।।
बैग मिलावी मोकू भांत ॥
सोता बिन हूं तजू परान न्यौं ज्यों लहर हिया में उठाइ । त्यों त्यों रघुपति दुख अधिकाई ॥४६६३॥ वस्त्र फाडि पघडी मुंइ अरि । महीपति खाई ता
लखमरा खागय। मूरज़क्त । मानु भए प्रति का अंत ।। ४३६४ ॥
करें बंद सीतल उपचार त उहं कु भई संभारि ॥ हा हा कर नित करत बिहार । परजा सकल दुःख के भाइ || ४६६५ ।।
घरि घरि रोवइ पीटर लोभ । घरि घरि करइ सीता का सोग नो महीना सोग में गये । लखमरण समभावं विनती किए । ४६६६ ॥
सीता सीलस सु पुनीत । ता थे राख्ने मनन चित ।
सील सहाई होय सच ठौर । पुन्य बराबर समा नहीं और ||४६३७ ।।
जल पल महियल सील सहाइ । बन बेहरा जिल्हा लागे लाइ || परवल समुद्र विषम जो होइ । धरम सहाई कहैं सब कोइ ||४६६चा