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मुनि सभावंव एवं उनका पमपुराण
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पृथ्वी पर का कुपित होना
उसके जरणे भारिणजे किये । जाति कुलीन विचारी हिए ।। यूही कन्या दोन्ही ताहि । असा मूरख मैं तो नोहि ।।४७०६।। सेरा दोस कबहू नहीं दूत । प्रभू के वाक्य कहै संयुक्त ॥ बर के जब इतना गुण होइ । तब कन्या पावै वर सोई ॥४७१०।। उत्तम कुल उत्तम ही जात । सीलवंत धन होइ विख्यात || रूपर्वत अवर वेस परमांन । बल जोवन स सुभ धान ।।४७११।। विद्या गुण लष्यण सिंह जाः । -हनुभट सारे पर करण । ताकू दीजे कन्या सही । कर्मकलंकी नै देणी नहीं ।।४७१२।। बोल दूत राजा सो फेर । रामचंद्र सुत जाण्यो सुमेर ।। सीसा सरक् गर्भ त भए । रघुबंसी सम अन्य न थए ।।४७१३॥ निरभय मन राख्यो पापणों 1 कन्या दे सुख पायो घणों ।। क्रोघवंत बोले भूगतीं । तो मैं बुधि नहीं है रती ।।४७१४।। राज समा बोलजे सोच । बिन विवेक तेरा ह लोच ।। घका दिलाइ दीनां है काहि । वंच्या दूत पड़ी थी माळ ।।४७१५॥ बघ नै सणाया भेद । भूपति के मन उपज्या खेद ।। में तो मुखतं वचन निकाल । मान्या नहीं प्रथवीधर भूपाल ।।४७१६।। अन्य बचण सुनाया भेद । होई दोस अपणो लगाउलवेद ।। सबके मन पावं संदेह । किर कारण उन करघा न नेह् ।।४७१७।। लाग खोज सगाई फिरें । अब हूँ जाइ समझाउं खिरै ।। बनजंघ पृथ्वी ऊपर चढमा । प्रथवीधर राजा सौं मिल्मा ।।४५१८।। भगनी सुत मेरै इह बली । रामचंद्र की कीरत है भली ।। कन्या देह विलम्ब मति करो । मेरा वचन सत्य चित में धरो ।।४७१६।। बोल प्रथईघर समझाइ । सीसा में होता गुरण राई ।। तो रामचंद्र क्यू दई निकाल । तो में प्रकल नही भूपाल ।। ४७२०।। पहली भेज्या या ते दूत । प्रब तुम ही पाए पहुंत ।।
जिन विवेक तू है अरमान । प्रपणी भाप घटावं कान ।।४४२१॥ वनजंघ एवं पृथ्वीपर में मुख
मान भंग हुवा बघ । निकल्या कोप ज्यू केहरी संघ ।। लूटघा नगर मचाई रोर । देस परगने मारे रोरं ।।४७२२।।