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पुनि सभाचंद एवं उनका पापुराण
रामलखण दीये बनवास । सीता संग रही रनवास ।। दंडक वन में प्राश्चम लिया । संवक कुबर तिहां तप किया ॥४७६४।। पसवात्ताप करें मन माह । विन अवगुण हत्या विवेकी छसंह ।। बार बार रघुपति पछिताहि । होरपहार मिट किह भाइ ।। ४७६५।। खरदूषण मुरिण कीनां जुष । राबरण करी हरण को बुध ।। सीता कू रावण ले जाय । रावण मारि सीता ले प्राइ ।।४७६६।। अजोध्या पाए जीती सब मही। इन समान हरपति को नहीं ।।। करम सर्द हवा तिहां माण | सीता कादि दई बन बारा ।।४७६७।। मबनांकूस बोल तिह बार । किरण अवगुरण पर दई निकार ।। नारद कहै सीता की कथा । पाठ सहल में सीता समरथा ।।४७६८।। जनक सुता सत सील को खांन । सीता सम कोई सती न प्राण ।। परजा दोख लगाया प्राइ 1 सुणी बात जब रघुपति राज ।।४७६६11 ता कारण के दीनी काद्धि । परजा के सिर दोष इह बाढ ।। इसा पाप ते पाहां निसतार । परजा गह्या पाप का भार ।।४७३०!
बिन अवगुण जे दोस दे, तेई मूल प्रयान ।। अंतकाल दुम्न मुमत करि, पाच नरक निदान ।।४७७१
चौपई लवकुश को प्रतिक्रिया
मदनांकुस बोलीमा कुमार । राम लस्यमण जे बुध अपार ।। उनहें करी न न्याव की रीत । तो इह वरणाइ हे विपरीत ।।४७५२१॥ अपणे घरका करया न न्याव । उनके घर का है खोटा भाव ।। जिनको दई हमकौं असीस । विन विबेक तू है रिष ईस ।।४७७३।। बोल्या नारद सभा मझार । रामचंद्र इह किया विचार ।।।
परला दोष लगाया घणां । बहुत भांति रघुपति में सुण्यां ।।४७७४॥ नारद का पुनः प्रागमन
निश्च सीला का सत रहा । लोकां भूठ बचन इह कह्मा ।। जे नही राखु लोकाचार । तो अपकीरत होय संसार ।।४७७५।। जुग जुग कथा हमारी चले । मोह कियो कोइ कह नहि भलं ।। जे पृथ्वीपति महै कलंक 1 श्रवर कुमारग कहै निःसंक 1॥४७७६।।