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पम्पुरास
रामचन्द्र ते डाए मोज । खोदो बन में तुम होम होइ ।। राम हुकम ले बन में गए । खोदै घरती मन अधिरज गए ।।४८८१।। राजनि कठ को मेट कोण । बरज़ मके को ढलती पौन !। प्रगनि कुड क्रौं खोर्दै भूमि । सम नगरी में मांची धूम ।।४८८२।। महेन्द्र उदय वन में मुनि एक । सरव मषन सूपरम की टेक ।। तीन रतन हैं वाकै सत्य । प्रातमध्यांन दया सुचित ।।४:५३|| दस लष्यण मुरण ताकै सल्य । मास उपवास पारण पित्ति ।। विद्युतबतक व्यंतरी नाइ । मुनि कू दुख दिया बहु भाइ ।।४८८४।। इहां श्रेणिक नै प्रश्न किया । किम 'उपसर्ग जष्यणी ने दिया ।। श्री जिनवांगी अगम अथाह । मिट सकल झिदा की दाह ।।४८८५॥ पूरव दिसा गुज पुर नन । सिंघ वक्रम राजा बल अगर ।। श्री देई अस्तरी सम्पक विष्ट । घरम करम करि महा थष्ठ ॥४८८६।।
सरव भूषण ताथै उत्पन्न । रूपवन्त सोहै लष्यन्त ।। जोवन सम ते कुमार । पाठ सहस्र विधाही उत्तम नारि ॥४८८७|| कर्ण मंडला पर की धणी । रूप लष्यण गुण लावन्य वणी ।। संगि सहेली बाठो पासि । देख्या चित्र सिराहई सासि ॥४८८८।। कर में पट चित्र का गहै । वारंवार सराहना कहैं । हम सिखर का था सिख्यारूप । सवतं पुरुष है वह अनूप ।।४८८६।। एक सनी ऐसा मिध हसी । तेरै मन ए ही जुरत बसी ।। हैम सिखर सौं संगम करि जाहि । मंसी सुरिग राणी मुसकाइ ।।४८६०॥ राजा कानि पड़ी इह बात । क्रोधवंत हुवा वद् भात ॥ खोटी चरचा एक में करें । पर पुरुष की इच्या घर ।।४८६१॥ विभचारिणी समझी मनाहि । मह्या खडग सौं मा जाहि ।। त्रिय परि कहा उठाकं हाथ । स्वास्था रूपी हैं सब साथ ॥४८६२।। झूठे सुख में राच्या जीव । इह फुटंब सब दुख की सीव ।। राजि कुटंच विभव सब त्याग । सरख भूषण उपज्या बैराग ।।४८६३|| लौंचे केस दिगम्बर भेस । हुवा जती गुरु के उपदेस ।। वा इह घिध तप भातम जोइ । क्रिया चौरासी इह विष होइ ।।४८६४।।