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पपपुराण
सीता को जल त बाहिर यांन । दई विठाइ स्मंघासन थान । सत की कांति छवि सोभा धरणी । कनक सलाक प्रगनि में बरणी ।।४६३४|| सब ही का संसय मिट गया । जै जै सबद सब ही ने किवा ।। रामचन्द्र बहु प्रस्तुति करें । बन्यं सीता असा सत धरै ।।४६३५| सेरी सार न जाणी मूह । तुमको देस दिया गूढ ।। सुमारे गुण की लही न सार | तुमने परि ते दई निकार ||४६३६|| मसुभ करम जम उर्दै झुप्रा । सुख में दुःख इक च्याप्या सिया ॥ अब प्रपणा मन राखो ठौर । तुमने दुःख न होइ बहोरि ||४६३७।।
आय सहस में सीता बड़ी । तुमारे लत की कीरत बढी ।। सब मिल सेव तुमारी करें । चालो ग्रह मन संसा टरं ।।४६३।। मेर सुदरसन तीरथ जात । बिजयारध पर्वत बहुत भात ।। गिरि सम्मेद कपिलापुरी । पापुर वारणारस नगरी ।।४६३६।। जिन जिन बन बिपत्ति में फिरे । अब वे सुख में देखु खरे || लंका देखो अबर सब दीप । बसे नगर जे समुद्र समीप ।।४१४०।। हमने दुख तुमको बहु दिय।। f मा करो हम पर तुम सिया ।। राज भोग भुगतो सब सुख । अब सब टल्या तुमारा दुःस्व 11४६४१।।
सौता का उत्तर
सीता कदै धिग यह संसार । घिग जागौं त्रिया अवतार ।। राज सुख धिग अर्थ मंडार । करू तपस्या ज्यू पा पार ॥४६४२।। त्रिया जनम फेर नहीं होइ । करू ध्यान प्रातमा सुध होइ ।। लोंच केस बसतर दीनां डारि । प्रश्रीमती प्रारजका सार १४६४३।। सकलभूषण का दरसन पाइ । को तपस्या मन बच काई ।। रामचन्द्र ने खाइ पछाड 1 भई मूर्धा घणी भई संभार ।। ४६४४।। प्रौषध वेद जतन बटु करें । सीतली बीजरणां ऊपर फिरें ।। पावन चवन सु' छांद का। बड़ी बेर में चेत्मा राइ ।।४६४५।। हाय हाई रोवं रघुरा । गए मकल' भूषण की ठाइ ।। देई प्रदष्यणा करि नमोस्तु । धर्म वृध्य कहीं मुनि अस्तु ||४६४६।।। ज्यों सुदररान मेरु के पास । जंबु वृक्ष सोहै अति उचास ।। सैंसे रामचन्द्र तिहाँ चणे । बारह सभा लोग तिहां पर ।।५९४७।।