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पमपुराग
करि भृगार प्राभूषण भले । हाव भाव भूकताहल गल ।। ताल मृदंग बजावं बीण । नपन अपलाई जीते मईन ।।४६०६ ।। मार्च सरस प्राण हर लेइ । मातमध्यान न चित्त डूलेछ । माचं गावं मधुरी तान | सुनत वचन हर लई प्रान 1|४६१०॥ मन चच काया खडा अडोल । च्यापें नहीं हिया मैं बोल ।। तब बह जष्यणी नागी भई । कर मालिंगन बहु चिघ भई ।।४६११।। अपणां ध्यान न छोडं जती । विलषी भई यक्षिणी पती ।। मुख भयानक रूप विकराल । अपामारग देह की लाल ॥४६१२।। कई अजगर कई साँप । लपट दोडि देहीं संताप ॥ कई रूप न्याघ्र का करें । गज का रूप महा भय घरै ।।४६१३।। निसांफित किया यत दृढ गीत । व्यंतरी दिया उपसर्ग बहु भांति ॥ महामुनीम्वर प्रातम ध्यान । तब ही उपज्या केवल म्यांन ।।४६१४।। जं जं सबद दसौं दिस सोर । सुरपति नरपति पाए कर जोडि ॥ छाये रहे विमाण प्राकास । देख्वा इन्द्र अगनि धूम प्रगास ।।४६१५।। ताके टिंग है सीता खडी । अनि काय निकस तिहां बुरी ।। ईसान इन्द्र पूद्ध विरतांत । इह प्रचिरज देख्या इस भांति ।।४६१६।। देखैई कुड देवता नरे । तिहां कोई धीरज नहीं धरै ।। एह याकी ढिंग ठाढी कौन ! भाखो बात तो मुख मौन ||४६१७११ सौधर्म इन्द्र कह समझाद । इह सीता पटराणी रघुराई ।। सत की महिमा सुरपति को । वाहि विपत्ति सो विष परै ।।४६१८॥ इह सीता सतवंती खरी । असुभ करम तं विपत इहै पड़ी ।। इसके भाव तारणे केवली । पूछे जाइ समझ विध भली ||४६१६।।
वहा सुर नर खग सब प्राध्या, अगनि कुड बिह थान ।।
देखि ताहि सोचत सने, मुनि को पूछ अनि ।।४६२०॥ इति श्री पयपुराणे सर्वभूषण केवल उत्पन्न विधामकं
९८ विधामक