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मुनि सभापंच एवं वनका पद्मपुराण
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तो हम तोकूदई नीकाल । मेरे मन उपज्या इह साल । सीता कहै सूपति प्रान । मेरे सक्षा तुम्हारा ध्यान ॥४०६७।।
तुम हो तीन बंख का पली ! न्याय न कीया एक टक रती ।। जई घर का कर सको नहीं न्याव । मौर का करिहो किह भाव ॥४८६८॥ गरभवती काही वनबास । मारत ध्यान में जीव का नास ।। मरकरि भ्रमती नीची गती । तुम को होती पाप की पिति ।।४-६६।। तीन जी का होता दुख । सुम को होती नहीं गति मोक्ष ।। बिन बिबेक तुम अंसी करी । जीव दया चित्त नहीं धरी ।।४८७७।। फिर कर वोलें रघुपति वैन । लेहु दिव्य हम देख नैन ।
जो में तेरा सांच पती जू। परजा देसै तदि में नहिं खिजू ।।४८७१।। अग्नि परीक्षा
मीता कहै लेहूं दिव्य पांच । अब तुम देखो मेरा सांच 11 साकं हलाहल ताता लोह । तराजू बीच तिष्ठावो मोह ॥४९७२।। मो में सत लो में सरभर रहूं । देखो प्रत्यक्ष सील बस लहू ।। रचो चिता दाशनल देहु । त! मैं मेरा परचा लेहु ।।४८७३।। जो मैं सत्ती न व्याप प्राग । जो कछु दोष तो प्राण ही त्याग ।। रघुपति फहै चिता हु रचों । जोवत हु पेरै जाणों सचो ।।४८७४।। सुण लोग पे बहु भाइ । रामचन्द्र तें कछु न बसाइ ।। अंगारा तन के छुवई । दाभं सुरंत प्राणन गवई ।।४८७५।। महा भयानक ज्याला व री । जिनमां बचे न एको घडी ।। अगन मांहि भस्म होइ जाइ । अंसी काहि कर सब पछताइ ।।४७६। सिद्धार्थ बोलियो नरिन्द्र । म्हारी बात सुणों रामचन्द्र ।। मैं तप किया वर्ष बहु सहस । पंचमेर नीरथ जिन अस ।।४८७७१। प्रक्रतम अत्यालय जिन गेह । करी तपस्या मन बच देह ।। जे कछु हुदै सीता में कलंक । ए सब जागि निर्मूल निसंक ।।४८७।। अंसी नारद ने भी काही । रामचन्द्र मन बैठो नहीं ।। सीता का सत्त महा अटल । जैसे है सुमेर अचल ।।४८७६॥ गै सुमेर घसि जाइ पाताल | सीता का सत्त खोटो चाल ।। रमि का सेज भी होई हीन । सीता का सत होई नही खीन ||४८८||