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पद्मपुराण
चौपई लवकुश का भयोध्या प्रागमन
बनध की प्रस्तुति करें | वाका गुण रखूपति विसतरें । दयावंत घरम का अंस | तुमते रहै हमारा बस ॥४८२६।। जे तुम आय वन के माझ । सीता कु भय व्याप्या नाहि ।। सीता की तुम कीनी सेन । उनका सप्त रया इन मेव ॥४॥२७॥ वइट बढि पुहपक विमाए । रामचंद्र लखमण बलवान ।। ल वनांकुस मामें प्रारूड । पर्वत लष्पण गुण गूळ ॥४८२८।। छाया नगर गली सब झाडि । छिटक्या नीर गली सब बारि॥ घरि घरि बांध बंदरवाल । घर घर देख्ला रामही नारि ॥४०२६॥ बाल वृध्य मय प्राये लोग | देख रूप भूले सब मांग ।। कोई मारि सराहै रूप । इन पदतर कोई नांही भूप ॥४८३०॥ घन्य सोता जाके गर्भ ए भए । बोनू स्वर्ग लोक ते चए । कोई देख रही पुरमाड । सिथन भई नहुनाको काइ ।।४८३१।। सिरत पड़ें भूमि पर चीर । रही न ऊनू को सुघि सरीर ॥ स्वटी लटि कटि ऊपर प्राइ । मानू लगे भूयंगम मिराइ ।।४-३२।। म्यांम केस अति सोभा वणी । खुले हीए दोड़ी तहां घरणी ।। वे अपने मन निरम जाहि । देख लोग हंस सब ताहि ।।४८३३।। सब के मन कुमरों का ध्यान । भूलि गई सन्न ही अवसान ।। हारह मेल मोती के छाडं । तेभी टूटि भौमि परि पड़े ।।४८३४।। प्राभरण की सब सुधि बीसी । श्याकुल भई गुर की अस्तरी ।। उन के मन कुछ मात्र नहीं । सगली नारि थकित होय रहीं ।।४८३५।। ज्यों पतंग पीपक सूनेह । देखे लोइ होम सव देह ।। दीपक के कछु नाही राग । जल पतंग ता सेती लाग ॥४८३६।। रतनवृष्टि प्रति करें कुमार । प्रानंद भयो सगले संसार ।। रहस र.नी सुदिवम बिहाइ । पूजा करें जिनेस्वर राइ ॥४८३७11
वहा
पिता पुत्र सों अब मिले, हुया अधिक हुल्लास ।।
चैन भयो सब नगर में, पूजी मन की मास ||४८३८।। इति श्री पपपुराणे लवनांकुस अयोध्या प्रागमन विधानक
६७ वो विधानक