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पद्मपुराण
विजयारध था धारणेदार । सनमुन पान करी उन मार ।। झूझ विजयारथ धरणी पट्या | अंसा सबद प्रथीपर सुण खरा ।।४७२३॥ देस देस के बुलाए मित्त । सेना जोड़ो जुघ की रीत ।। बनजंघ के पुत्र सुणी । उण भी सेना जोडी धरणी ।।४७२४।।
लवकुश का युद्ध के लिये प्रस्थान
दोन्यु कुमर रहसि मनः भया । कर माज साका हम नया ।। एले घने काहु फू लोग । हम दोनू उस सेना जोग । ४७२५।। सीता कहै तुम हो लघु बस । रण में कैसे करी प्रवेस ।। कहैं कुवर हम स्यंच समान । हरूली भाजै अति बलवान ।।४७२६।। ए कीटक कहा सरभर करै । सत्री रण में ते क्यु उरै ।। करि सनान पूजे जिनदेव । भोजन भक्ति करी गुरु सेव ।।४७४७।। बागा पहरि बांधे हथियार । पंच नाम पडि बारंबार ।। रथ परि चढे पाय प्रापरणे । प्रायुध संग लीने तहां घने ।।४७२८।। बहते मग चले सामंत | उरलें प्रथवीधर बलर्वत ।। बज्रबंध प्रव ईधर लई । दोउधां बहोत सूरमां पड़े ।।४७२६।। बज्वगंध दीए हाइ । सधनांबुस सब प्राए धाइ ।। जैसे स्यंघ सारंग कु गहै । भाज पसु सुधि न रहै ।।४७३०।। जैसे कई पाक की उर्ड । प्रथईधर की सेना सुई ।। पग धरणे कु. रही न होर । पड़ी लोथ भाग रण छोरि ।।४.७३१।। प्रथईघर का कंपे गात । पोछ छोडे दोन भात ॥ तब लवनाकुस बोले बोल । चेत वचन अव का करें भोल ।।४७३२।। हमारा नाम धरै था भंड । अब काई छोई क्षत्री अँड ॥ क्षत्रीकुल हूँ पीठ न देइ । तू कलंक अपने सिर लेड ।।४७३३॥ सनमुख पाइ अझ काइन करं । गर्व वयण अब कां बीसर । प्रथिवीधर छोडे हथियार । हाथ जोड ठाठा तिण चार ।।४७३४।। तुम हो रामचंद्र के पूत । तुम प्राकर्म कोई न सके पुहंत ।। मो परि शिपा करो कुमार । तुमसा बली न इस संसार ।।४७३५।। दोह कर ओरि कर बीनती । बच्चध मिलिया भूपती ।। कनकमाला मदनांकुस को दई । मन की खटक समली मिट गयी ||४७३६।।।