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इन्द्र सर्मा इनका प्रताप । सुख मां भूल गए संताप ॥ मदमत देव गए श्रार्बल पूर 1 सुख में भया दुःख का मूर ||४२२७११
भरत के पूर्व भव
हा हा कार करें बहु भांति । ए सुख छोडि भ क जात ।। माया मांभि क्या लोक मध्य । समेद सिखर यांनक है सिष्य || ४२२८ ।।
हाथी उपज्या अति मयत । सहश्र जूष महे गरजत ॥ जइसे समुद्र गरजना करें ऋह विष मंगल दन में फिरें ॥। ४२२६ ।।
जिहां सरवर देख वह भले गंगातट पर पार्क पर
| क्रीडा करें कमल तिहां खिले । डरें सकल देखें इस वीर ॥४२३०||
महा भयानक दीसं रूप जैसा बादल सजल बडा स्याम
या सनमुख नहीं आवें भूप ॥
पचपुराण
पर्वत पर खूब करना भरें। भ्रमर गुंजार सिहां प्रति करें ।। तब रावण आया था जिहां | हाथी सब दल मारे तिहां ॥४२३२।।
प्रसादंती मोहै उस ठाम ||४२३१ ।।
रावण ने पकडघा उस बार । त्रिलोक मंडल सा नहीं मंगार ॥ रामचन्द्र लक्षमण की जीन । रावण भुक्या हाथी भयभीत ।। ४२३३।।
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जाती समरण उपज्या चित्त अभिराम देव स्वयं ते चया
त्रिलोक कंटक त्रिलोक मंडल नाम । प्रइरापति सम इसका भाव ॥ भरथ ताँ मन भया नैराय सब घाए वा सनमुन लाग ||४२३४।।
भरत द्वारा वैराग्य लेना
सोरठा
सुरण पिछला सनबंध, सकल सभा चत्रित भई || समझें भेद अनंत पूरव भब सब श्राप
है मौन हो रहे प्रनित्त ||
दसरथ के या सुत भया ||४२३५।।
||४२३६ । । इति श्री पद्मपुराणे भरत त्रिलोक अलंकर भवकोत्तनं विधानक
७६ वां विधानक चौपाई
भये अचंभय सगला लांग रहे अमित जैसे सार्धं जोग ।। जाण्या सफल कर्म का बंध। बहुत तज्या मोह का फंद ||४२३७॥