________________
मुनि सभाचंव एवं उनका पद्मपुराण
निष्ट वयल कैसे करि कहें । भय चित घरां मुक होय रहें || राम कहें चिता मति करो। कहो निसंक सब भय परिहरो ।।४५२१ ॥
प्रतिनिधियों का उत्सर
विषय सूरज बोल कर जोडि । प्रभा भणी लागी इह बोटि ।। रूपयंत जोवन भरी नारि । निकस भाग्या बिन भरतारि ।।४५२३।।
जिल्हा मन होवे तिहां वह जाए। वे कछु कंस कहैं तो रिसाइ ॥ तब उत्तर बोल असतरी सीता रावण का हरी ।।४५२४ ।।
ता का सब विष राखे मान ||
ते सीता रामचंद्र ने आणि पैसे हैं वे त्रिभुवन पती । तिही मन में न प्राणी रती ।।४५२५ ।।
सीता को वे बोड़ा कहैं । जे मुख निकले सो ही कहें ॥
सीता सती पतिव्रता प्रसतरी सील संयम सों सव विश्व खरी ।।४५२६ ।।
रावण सीलव्रत लीया । उनका सत सब विष राखीया || सत्त सील इह विध रह्या सर्व । उनको रोत करें ए मर्व ॥ ४५२७।।
जैसा हमें बताको ग्यांन । तासों रहे सवां की वन ।। देस देश में हूवा इहसूल 1 परजा गई सर्व सुख मूल ।। ४५२८ ||
जिह विष बसे हो सुख चैन 1 तैसे समझाबो प्रभु चैन ॥ रामचन्द्र सोचे मन माहि । मेरे साथि देखें दुख याहि ।।४५२६॥ राम की व्यवा
रावण दडक वन में श्राइ | सीता कुं ले गया चुराड़ ||
मारचा रावरण सेनां धरणी । अब तो भई सुख की बार
वानर बसी भए सहाइ । उनको संगति पहुंचे तिन ठांइ २२४५३०॥ सीता ले आए प्रापणी || कैसे घरि तँ देहु निकार ||४५३१ ||
। तो भी होइ महा उपहास ।। किस विष तर्ज मन की मंत्र ||४४३२ ॥
तज्जु राज वन में करूं बास उत्तम कुल को चढ़ें कलंक पराया मन की जाएँ कौंन । बुरा कहे छत्तीसों पौण || नारी महा दुःख की खांनि । श्रपकीरत हो इनके जांन ॥४५३३ ।।
8
प्रतक्ष जानो कुगति कांमनी । असे चित्त विचारो धनी ॥ मोही चित्त चुरा ले जाहि । लख चौरासी जौनि भरसाइ ||४५३४।।