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मुमि सभाचंद एवं उनका यद्मपुरान
कृतांत का रहस्य खोलना
तब विनती कुरं । सत्य बचन गुख तें उच्चरें || हमारा नहीं नगर में बास ||४५७५ ।।
कृतांत प्रजा पुकारी रघुपति पास परि परि नारि करें विभचार । छोडा राब लज्जा का भार ॥ जब वजले घर का भरतार | उत्तर देहं सकल वे नार ||४५७६ ।।
सीता रावल के घर रही । रामचन्द्र कुछ बात न कही ।। फेरि श्राणि पटणी करी । तुम काय हमनें भाखो युगे ।।४६७३ ।।
ऐसे पुरुष से अंगीकर्त्त । तुम तो ढूंढो हमास चरित्र ॥ रामचन्द्र सुविन मन में सो गया
४७५॥
लखमरण रह्या बहुत समझाय । उसका कह्या न मान्यां राइ ॥ मोहि बुलाई भाग्यारह दई । तब मोकू चिंता इह भई ||८५७६ |
कैसें छोड़ वन में सिया । कहत सुशांता फार्ट हिमा ||
वन उत्तर का न जाइ। तारों सुमनें आणी इस ठांइ ।।४५६० ।। सीता का सदेशा
बोलें सीता गदगद बोल । प्रजा रघुपति करो किलोल 11
हमां उनू की इहां लागि प्रीति । धन्य जीव जे होइ श्रमीत ||४५६१।
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बहु सुख भुगते राज प्रसाद । युही जनम गमायो सब वाद || धर्म न चेत्या सुख की देर । मानुष जन्म कहां लड़ीए फेर ॥४५६२।।
जैसे कोई तन को पा । फेरि समुद्र में दिया बुहाई ||
वेर देश कहां पार्व रतन । जे कोई करें कोटि जतन ॥४५८३ ॥
सा रतन मानुष्य श्रवतार । तामें भले मूड मार ||
करो धरम भवसागर लिये । बहुरि न मोह फंद में पडी ||४५६४ ।।
भाई मूर्छा खाई पछाड । बडी बार में भई संभार ॥
फिर बोली सीता महासती । रामचन्द्र सूं कहयो वीती ॥४५८५॥ परिजा में ये दुखि मत करो। दया समकित चित्त में धरो ।। पूजा दान करो दिन रात तुमारे समरण में इह भांति ||४५६६ | कृतांतक तव रोवें पुकार । अपने सिर लिया मैं भार ।। सेवक का है जनम अकवथ । अपने बल होवे समरथ ||४५८७ ||
तो परों मनमानी करें। पाप ने पुनि समभि चित्त रं || पराधीन छ, बोझ न सके। बिहा भेजे तिहां पल नहि टिकै १४५८