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मुनि सभाचंद एवं सनका पपपुराण
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मेरे घर तई मुनिवर फिरें। पादर भाव सभी बीसरं ।। दानांतराय भई कुबुधि । तत्व रूप की करी न सुष ॥४३६४१॥
कोटि मिथ्याती दान दे, एक संजमी न समान ।। अणुव्रती ताथै बडा, महावरती परमांन ।।४३६५।। तीर्थंकर सम को नहीं, जा घर लेहं प्राहार ॥ अन्य भाग उस जीव का. सब ही करें मनुहार ||४३६६॥
चौपाई इस विध च्यार मास पिछताई। कर पाप स्वयऊ समझाई॥ दान देण की इच्छा नित्त । धरमध्यान सों एक पित्त ॥४३६७।। कातिग सुदि सातै सुभवार । मुनिवर पाये वनह मझार ।। छह हति के फल फूले परगे । भरे सरोवर निर्मल भरे ॥४३६८।। अरदत्त सुरिण आया जिहाँ । बहुत लोग संग पहूंचे तिहा ॥ अस्वगयंद का नाही बोर । करै महोछव जंज सोर ॥४३६६।। रामचंद्र लक्षमण सघन । भये प्रानंद सबन के मन ।। धरसन कू आए तिण बार । नमस्कार करें बार बार ।।४४०४॥
स्वामी हम परि क्रीपा करो। भोजन लेइ पुन्य विस्तरो॥ माहार विधि
मुनिबर बोले सुनो नरेस । जती न कहै भोजन उपदेस ।।४४०१॥ जे मुनि अपनी भोजन कहैं । पाप खोट अपने सिर गहैं ।। मुनिवर उठे पाहार निमित्त । फासु भोजन लेय तुरंत ।।४४०२।। छह रस ता समझ नहीं स्वाद । ऊंच नीच देख रह प्रसाद ।। कर पात्र करि भोजन लेह । फिरि जोग वन ही मैं घरेह ३४४०३।। धरि घरि लोग नित करें रसोरा द्वारापेषण ढाढा होइ ।। सत्रुधन पूछे जोड़े हाथ । कहो धर्म मोसु मुनिनाथ ||४४०४॥
धरम जिनेश्वर कब लौ चल । प्रागम कही सुरणौ हा भले ।। पंचम काल का प्रभाव
कहे मुणीस्वर सुणो नरीद । पंचम काल उपजे न जिणंद ।।४४०५।।