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लक्ष्मण द्वारा चक्र प्राप्त करना
लक्षमण में वह बैठा हाथ पुन्य समान मगा नहीं को पुनि सहाय दुर्जन होन । पुन्य पार्वं कुष्य प्रवीन ॥
पुण्य
ते भोग मुगत संसार । पुन्य बडो त्रिभुबन आधार ।।३७४३।। पुन्य तैं दुख दालि जाइ । संकट विकट में पुन्य सहाई ।। जलथल महियल में भय दरें ठग ठाकुर ने उपद्रव हरे ।।३७४४
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पुण्य सहाइ हुना रघुना || । पुन्य ही ते जग में जस होइ || २७४२ ।।
मुन्य से कंचन वरण सरीर । रोग योग ने व्यापै पीड ॥
सब जग से भय नहि ताहि । पुन्य समान भला कछु नाहि ||३७४५
पुन्यपान सिट । पुन्य तें पावें सुर की रिश्व
पुन्य पापरिया सुख । पुन्यवंत का भाजे दुख ।। ३७४६||
सोरठा
पद्मपुराण
रघुबंसी सुपुनीत चक्र सुदर्शन पाइया ||
तब सब भए नवीत, रच भव के दुन्य सु || ३७४७ ।। इति श्री पद्मपुराणे चकसुदर्शन लाभ विधानकं
६६ वां विधानक पपई
लक्षमण चक्र सुदर्शन पाय । आनंदे रघुवंसी राइ ॥
रावण का पश्चाताप
रावण र बेर पिता | शुभी सब भेन्या इसाइ ||३७४८ ॥ हयगय रथ अरथ भंडार 1 पुत्र मित्र संगी नहीं लार ॥ नारी लक्ष्मी प्रा फिर जाई । जैसे बुंद बुद जाइ विलाई || ३७४६ ।
हूं माया जाल मांहि पडचा । परनारी जाय करि हरभा ॥
मैं मामा तजि लेता जोग तो क्यूं होता इतनां सोग ।। ३२५० । लक्ष्मी तज न सक्या अग्यांन । मोकु छोड़ि गई सुविज्ञान || जे नर माया के बस भए । वर्म विदारक स्थान ही हिए ।। ३७५१ ।।
जनम अकारथ खोय। भाप | अइसां रावन करे विलाप || अनंतवीयं स्वामी के वचन । ते मैं देखे भेद भिन्न भिन्न ॥। ३७५२ ।।
कोटिसिला उठा जाइ । वक्र सुदर्शन पाने श्राइ ॥ सेनिस रावण कु । हुआ परतक्ष श्री जिन भएँ ।। ३७५३।