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सुमि सभा
एवं उनका पपपुराण
रामचा सा कर ए कर्म । कैसे रहे अन्य का धर्म ।। में नारी पाहिर पग देइ । ताहि सुभट कैसे घर में लेइ ॥४०८०।। उत्तम कुल को पूरी लाज । पर घर में तिन सों नहीं काज ।।
असी चरचा पर घर हो । प्रसुभ कर्म मति नधिो कोइ ।।४०८१॥ भरत के मन में वैराग्य
भरत तणों मन भया राग । सकल रिष सौ मेल्पो लाग ।। राजभोग विष समस्या सबै । सब ही विनासी जाणों मबै ।।४०६२६ जोवण जल बुदबुदा समान । जरा ज्या तव थकै परोन।। पांचु इन्द्री हुवं क्षीण । पराक्रम थक देही होइ होण ।।४०६३|| सब कैसे पाल चारित्र । चार कषाय जीव के सत्र ।। विषय सप्ताइस सह दुख के मूल 1 जे प्रग्यान मोह में मूल ||४०८४|| लोही मुत्र हाग आमिष । ताहि देखि जिय मार्न मुख । काया की काचा पिंड । जिम कुंभार बणाव भंड ॥४०६५।। एक धरी में होई चार i से सू काही करे यार। मनुष्य अनम किस ही विष लहै । सयम को निश्चय सों गहे ।।४०८६।। इह विभूति संग्या उपहार । सोभी जात न लागं वार ! जैसे दावानल बन बहै । बड़े वृक्ष पल में भस्म फरि रहे ।।४०८७।। सब बन भस्म कर वह प्राग । तउ न हार पल पल जाग्य ।। जेता धनगर ताहि । तो भी पावक तृपत न नांहि ॥४०८८।। ऐसे भुगत सब जग मही । तो भी तृष्णा मिटती नहीं । ज्यों समुद्र मति ही गंभीर । गंगा नदी मिल्या सब नीर १४०८६।। समडे मही समुद्र किह भाति । से जीव मोह के नसात ॥ राग छोगो करि ज्यान । सुख दुख सममें एक समान ।।४०६ जैसे गंगाजल के पास । काक घरं मामिष की मास ।। मृतक परि बैंक चला जल माहिं । उठ लहर प्रगम पयाह १४० ११॥ समुद्र मांहि पहुंच्या बह काम । तिहां तं निकसै न मारग लाग ।। देखें उबक चिहं दिसि मोर । उहने का पात्र नहीं ठौर ॥४०६२।। ऐसे जीव माया बस पडे । भवसागर में भ्रमता फिरें ।। जैसे मौंरक पंकज रुचि करें । तिहाँ मुबंग भाप पकडं ॥४०६३॥