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पद्मपुराण
मैं समझे था प्रमत पाय । विष समान लागे मुझ दाइ । जई हूँ देहु राम ने जाइ 1 तो सब हंस रक अनं राब ।। ३६.६।।
उन अंगद मोसु' करी प्रति बुरी । बिगोया मोहि सब अस्तरी ।। रावण का पुनः युद्ध करने का निश्चय संग प्रौर म उसी
का किन जीये ।। प्रभामंडल तम मंडिल करूं । हनुमान जम मंदिर धरू ।।३६१०॥ चंद्रहांस से सजको काटि । उनकू भेजूम की बाटि । देख जू अव मैं अंसी कर' । मारि सबन कुपरलय कर ॥३६११||
दूहां
समझि ग्यान विह्वल भया, पहुंची आवजु पूर । धरम रीत जारणी नहीं. उन जु कुमाया कूर ।। ३५१२।। इति श्री पपपुराणे जुनिश्च कृत विषानक
६६ वां विधान
चौपाई रावण को वैनिक क्रिया
बीती रया फिया सू विहांण । रावण उठि कीयो असनान ।। पूजा करी देव भगवंत । बारबार सुमरै विनयवंत ।।३६१३।।
भोजन करि मूषण सवारि । मात पिता की कीनी मनुहार । परनार हाल
सब कुदीने कंचन लाल । स्पंधासन बैठा मुघाल ॥३६१४।। तिहां भूपती ठाठे घणा | रावण सोचें मन प्रापणा ।। कुंभकर्ण घा मेरी बांह । इन्द्रजीत मेघनाद भी नाहि ॥३६१शा बै तीनू रामचंद्र में बंदि । उन धिन सगली सेना अंध ॥ हाथ गला थें सोचे सोच । अन्नपाणी थी छोडी रुच ।।३६१६।। देखें तिहां सकल मंतरी । उनू बुषि उपजाई खरी ।। मन की बात उनू सब पाइ । कहै बीनती सबै समझाई ।।३६१७।। तुम कुछ चिता पाणी प्रापण । तुम संग नरपति हगे घणे ।। विद्या एक एक ते भली । पूजेंगी तुम मन की रली ।।३६१।। सुरवीर नहीं करें विचार । उठो देम बांधो हथियार ।। मंदोदरी झांख झरोखा द्वार । कसी प्राजि कर करतार ।।३६१२।।